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षष्टिशतक प्रकरण
[जि.] अहो श्रावक अजाण ! जड़ किमइ तूं जिनहूई वांदइ नमस्करि घरि पूजई अनई वली मिथ्यात्वीनि रागि करी तस्स तेह जिननउं वचन अवहेलिसि अवगणिसि न मानहं ता तउ अहो श्रावक मुग्ध ! तर तूं जिनहूई कांई वांदइ ? काई पूजइ ? जिनवाद 5 जिनवचन तेहनी स्थिति आचारई किसुं न जाणई ? सिद्धांतमाहे इसुं कहिउं, ' श्रावकि जिनवचन मानिवउं, अवहेलिवउं नही।' इसुं जिनवचनई न जाणई तूं ॥ १३१ ॥
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[ मे. ] जइ तउं देवनई वांदइ पूजइ अनइ वली तेहइ जि तीर्थंकरना वचननई हीलइ राग लगी तउ त तेह परमेश्वरनई कांइ 1० वांद, कांइ पूजइ ? किसउं लोकव्यवहारनी स्थिति न जाणई ? ॥ १३१ ॥
[ जि. ] सिद्धांतरीतिइं अजाण श्रावकहूई उपदेश देई वली लोकरीति उपदिसइ |
लोए वि इमं भणिअं जो आराहिज्ज' सो न कोविज्जा' । मनिज्ज तस्स बघणं जइ इच्छसि इच्छिओं काउं ॥ १३२ ॥
[ सो.] लोए० लोकइमाहि इसिउं कहीइ । जे आराधीइ ते कोपविवु नही, अवगणिव नही । तेह भणी मन्निज्ज० तेहनुं वचन मानिवडे, जउ तेहना मननउं गमतुं करिया वांछइ । जउ तेहनूं वचन आराधिवउं, तु ते मानिउ पूजिउ । जउ तेहनुं वचन न मानी तउ बाह्य पूजिइ कांई न तूसइ । साहु कूपइ । लोकइ ए वात 20 कहइ ॥ १३२ ॥
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१ जि. मुणिउं, मे. सुणियं. २ आराहिजइ. ३ कुपिज्जा ४ इच्छिउं . ५ ' मानिव उं... तेहनुं वचन न' एटलो पाठ सोनी बीजी प्रतमांथी पडी गयो छे. ६ सामुहु.