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त्रण बालावबोध सहित
हूंता जिनवरेन्द्र तुल्य श्रीजिनवरेन्द्र सरीषा' इति । जे श्रावक अथवा जे महात्मा अथवा अनेरउई कोई इह संसारमाहे एवं इसुं पूर्वोक्त मानइ ते पुरुष सुद्ध धर्महूई विमुख ऊपराठउ बाह्य ॥ १३०॥
[मे.] जयणारहित, अति पापिष्ट, पापमइ वचन बोलतां संकाई नहीं एवहाइ गुरु सुद्धचारित्रिया कही मानइं। कहइं ‘अम्हारइ ए 5 तीर्थकर समान ।' जे अजाण इम मानइं ते सूधा धर्मनइ सर्वज्ञना वचननइ विषइ विमुख ऊपराठउ जाणिवउ ॥ १३०॥
[सो.] एह जि वात ऊपरि कहइ छइ ।
[जि.] तेही ज धर्मबाह्य अजाण श्रावकनइ उपदेश दिइ छइ । जई तं वंदसि पुज्जसि वयणं हीलेसि तस्स रागेण। 10 ता कह वंदसि पुज्जलि जणवायठिई पि न मुणेसि ॥१३॥
[सो.] जइ तं० रे बापडा जीव ! जइ तूं तीर्थंकर देव वांदइ छइ, पूजइ छइ, स्तवइ छइ, तु तूं ते परमेश्वरनउं वचन 'सुसाहुणो गुरुणो पांचंदिअसंवरणो० पंचमहव्वयजुत्तो' इत्यादिक काई अवगणइ ? दृष्टिरागि वाहिउ तेहतेहवा आपणा गुरुनइ अनुरागिः5 वाहिउ हूंतउ । परमेश्वरि कहिउ छइ । 'एहवा भ्रष्टाचारनु आलावो संवासो वीसंभो संथवो पसंगो य० एतलां वानां न करिव' इसिउं परमेश्वरनुं वचन जइ हीलइ छइ, अवगणइ छइ, मानतु नथी ता कह० तू परमेश्वरहूई वांदइ कांइ, पूजई काई ? जणवाय लोकव्यवहारइनी स्थिति न जाणइं छइं ॥ १३१॥
१ जि. जा, मे. जो. २ जि. मे. जिणवायठियं पि. ३ जउ. ४ पंचमहुव्वय. ५ अवगुणइ. ६ दृष्टिइरागि. ७ 'वचन' नथी.
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