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.' षष्टिशतक प्रकरण ।
- [जि.] दूसमि दुःखमाकालिइ दंडे दंडिइ लोकि हूंतइ । वली स्वदुःखसिद्ध आपणा दुःखई नीपनउ दुःखनउ उदय तिणि हूंतइ । एतलइ एकतउ दुषमाकालि लोक दंडिउ । वली दुःखइ ऊपरि दुःख एहे बिहुं हूंते जेहां पुरुषांनउं धर्म हूंतउ सम्यक्त्व न चालई तेहां 5 भाग्यवंता पुरुषांनउं हउं नेमिचंद्र भंडारी सम्यक्त्व प्रणमउं नमस्करउं ॥ १३३॥ . - [मे.] ईणई दुक्खमाकालि लोक दंडिइ हूंतइ शिष्ट उत्तम लोके गाढे दुक्खीए हूंते अनइ दुष्टनइ उदइ हूइ हूंतइ । एवहइ छतइ
धन्य ते जेहनां चित्त हूंतउं सम्यक्त्व न चालई तेहनइं हउं प्रणाम 10करउं ॥ १३३॥
[सो.] वली गुरु आश्री वात कहइ छइ । ... [जि.] अथ गुरुपरीक्षारूप कहइ । निअमइअणुसारेणं ववहारनएण समयसुद्धीए।
कालखित्ताणुमाणेण परिक्खिओ जाणिओ सुगुरू ॥१३४॥ 15 [सो.] कवि कहइ छइ । आपणी बुद्धिनइ अनुसारि, व्यवहारनयइं करी, सिद्धांतना वचननइ अनुसारि, कालक्षेत्रनइ अनुमानि, कालक्षेत्र संघयणादि जिस्यां छई तेहनइं मानिइं चारित्र क्रियानी सर्व शक्ति खप करइ छइ । तेहनइं अनुमानिइं परीषी गुरु लीधउ अनइ मानिउ
छइ ॥ १३४ ॥ 20 [जि.] निजमतिनइ अनुसारि करी आपणाइ बुद्धिप्रागल्भ्यनइ प्रमाणि करी, वली व्यवहार लोकाचार तेहनउ नय न्यायरीति तिणि करी अनइ वली त्रीजउं समयबुद्धीए सिद्धांतनी बुद्धिइं करी
१ जि. बुद्धीए. २ शक्तिइं.