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त्रण बालावबोध सहित
[सो.] तिहुअण० त्रिभुवननउ लोक एवडउ सघलउइ मरइ छइ । को रहिउ नहीं, रहिसिइ नही । एव्हउं स्वरूप देषीनइ आपणपउं न जोइ, ' अम्हहूई मरण आवइ छड्, धर्म करउं ।' विरमंति० पाप थिकउ विरमई नहीं, ऊहटइ नहीं । घिद्धी० तेहना धीरष्टपणा प्रतिइं धिग् पडउ, जेह भणी लगारइ मरणमय गणता नथी ॥ १०९॥ 5
[जि.] जे पुरुष त्रिभुवननउ लोक मरतउ देखी आपणपउं न निअंति न चीतवइं, वैराग्य न पामइं अनइं पाप हूंतउ विरमई नहीं तेहां पुरुषां तणउं घेठपणउं तेहहूई धिग् धिग् ॥ १०९॥
[मे,] त्रिभुवनना लोक मरता देषीनइ आपणषउं जोइं नहीं जि 'अम्हेई मरिस्यउं ।' एवहउं देषी जे पाप हूंता विरमइं नहीं तेहना:० धेठपणानई धिग् धिक्कार पडउ ॥ १०९॥
[सो.] वली एह जि वात कहइ छइ, बिहु गाहे।
[जि.] अथ कुत्सित स्नेहपणानउँ फल बिहुँ गाथाई कहइ । सोएण कंदिऊणं कुटेऊणं सिरं च उअरं च । अप्पं खिवंति नरए ते पि हु घिद्धी कुनेहत्तं ॥ ११० ॥ 15 एगं पिअमरणदुई अन्नं अप्पा वि खिप्पए नरए। एगं च मालपडणं अन्नं लउडेण सिरि घाओ ॥११॥
[सो.] को सगउं मरइ तउ अजाण जि शोकिई करी आनंद करइ अनइ माथउं पेट कूटइ। तीणइं करी गाढडं मोहनीय कर्म ऊपार्जीनइ आपणपउं नरगि घातई । तं पि० तेहइ कुस्नेह विरूआ40 स्नेह प्रतिइं धिग पडउ ॥ ११०॥
१ जि. मे. सिरघाओ. २ शोकइं. ३ नरकि.