________________
पष्टिशतक प्रकरणः
[जि.] अद्यापि आज लगइ तडयडा कडकडा शुद्ध निर्दोष गुणवंत केईएक गुरु दीसइं । पर केवल प्रभु श्रीजिनवल्लभसूरि सरीषउ: वली जिनवल्लभसूरिइ जि । अनेराना अभावइतउ
अन्योन्योपमा छाजइ. ॥ १०७॥ 5 गुरु श्रीजिनवल्लभसूरिनइ वचनइ कहीएकहूई सम्मं सम्यक्त्व नइ उल्लसइ न प्रकट हुइ। अथ पछइ दिनमणितेज सूर्यनां किरण उलूक घूयड तेहनउं अंधत्व अंधपणउं किसउं हरइ ? अपि तु न हइ । सूर्यना तेज सरीषउं विश्वप्रकासक श्रीजिनवल्लभसूरिनलं वचन
अभागिया पुरुषरूपिया घूयड तेहनउं अज्ञानरूपिउं अंधपणउं न फेडइं 1०तउ ते अभागिया घूयडना कर्मइजिनऊ दूषण ॥ १०८॥
मे.] अजी एवहइ तीर्थकालि द्रव्य क्षेत्र काल भावनइ मेलि गुरु गुणवंत सूधा क्रियावंत आकरा दीसइं। पणि श्रीजिनवल्लभसूरि सरीषा वली श्रीजिनवल्लभसूरि जि ईणइं कालि दीसई ॥ १०७ ॥ .. श्रीजिनवल्लभसुगुरुने वचने कहिनई सम्यक्त्व उल्लसइ नहीं ? 15अपि तु भव्य जीव सेवाकारक संघलाइंनइं. सम्यक्त्व उल्लसइ । अथवा
वली सूर्यनउं तेज धूअडनई अंधपणउं किमझ फेडइं ? अपि तु न फेडई। तिम जे अभव्य दुरभव्य छई ते गुरुने वचने सम्यक्त्व न ओलखइं । इसउ भाव ॥ १०८॥
- [सो.] संसारनउं मरणादिक स्वरूप देखीनइ केतलाइंहूई 20वैराग्य न ऊपजई। ए वात कहइ छइ । .
[जि.] अथ तेह ज अभागियानउं स्वरूप कहइ । तिहुअणजणं मरंतं दट्ठण निति जे न अप्पाणं । विरमंति न पावाओ घिद्वी धिट्टत्तणं ताणं ॥१०९॥ १ 'केतलाई हुई ' नथी.