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त्रण बालावबोध सहित
९५ थाइं । न रमंति० संसारना विषयसुखनइ विषइ न राचइं। लिंति० जिन वीतरागनी दीक्षा लिइं । ते दीक्षामाहि परम तत्त्व पांच महाव्रत पांच समिति त्रिणि गुप्तिरूप आराधइं । ते आराधी स्व-परलोक नासइं हुई । धर्मनउ उपकार करई । उपकारक केवलज्ञान प्रामी मोक्ष लहई। यत उक्तं श्रीउपदेशमालासिद्धान्ते
आसन्नकालभवसिद्धियस्स जीवस्स लक्खणं इणमों। . · विसयसुहेसु न रज्जइ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥ (गा. २९०)
[जि.] सुद्ध निर्मल मोटा जे कुल धर्मलक्ष्मीवंत कुल तिहां जात उप्पन्नाई हूंता गुणवंत न रमई । संसारना भोग न भोगवइ । किंतु जिनोक्त दीक्षाव्रत लिइं । तेह जिनदीक्षानउं किसुं प्रमाण? तत्तो वि० य परमतत्तं । तेह जिनदीक्षा हूंतउ परम तत्त्वज्ञान ऊपजइ । तओ वि तेह परमतत्त्व हूंत उवयार लोकहूइं उपगार हुइ । अथवा आपणपाहूइं उपगार हुइ। भलां धर्मानुष्टान करइं। अनेरा. पाहइं कारावई । मुक्खं तेह उपगार हूंतउ मोक्ष हुइ । मोक्षि अनिर्वचनीय अप्रतिपातिया शाश्वतां सुख छइं । तेह भणी गुणवंत दीक्षा लिइं ॥९४ ॥5
[मे.] जीणइ कुलि वीतरागनउ धर्म वापरइ तीणइ कुलि ऊपना हूंता विनयविवेकादिक गुणसहितइ हूंता संसारना सुखनइ विषइ न राचइं । अनइ जिनदीक्षा लिइं । तिवार पछइं परम तत्त्व ओलखइ । ते आराधता हूंता ऋमिहिं मोक्ष पामइं ॥९४॥
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[जि.] अथ नारकी कहइ ।
, वन्नेमि नारयाओ जेसिं दुक्खाइं संभरंताणं। . भव्वाण जणइ हरिहररिद्धि समिद्धी वि उद्घोसं॥९५॥
१ उपकारी. २ °रिद्ध. १३