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षष्टिशतक प्रकरण
[ सो.] गाढा मिथ्यात्वी पापीई' रहइ उत्तम हित करिवउँ चवई' । ए बात कहइ छ । बिहु गा करी ।
[ जि . ] अथ सत्पुरुष दुष्टईहूई हित करई । इसे जाणावइ । दोसो जिदिaaणे संतोसो जाण मिच्छपावस्मि । 3 ताणं पि सुद्धहियया परमहिअं दाड़मिच्छंति ॥ ६२ ॥
[सो. ] दोसो० जेह रहइ जिनेन्द्रना वचन ऊपरि वीतरागना धर्म ऊपर दोष अनइ मिथ्यात्व पाप ऊपर संतोष छह, मन तिहां बइठूं छइ । ताणं पि० जेहनां हियां सुधां निष्कषाय निर्मल छई ते तेहइ" रहई धर्महित देवा वांछ । धर्मनु लाभ करिवु चीतवइ | जाण ० किन्हई ए" बापडा धर्म मिलई तू रूडउं ॥ ६२ ॥
[जि.] जाण जेहहू जिनेन्द्रनां वचन ऊपरि द्वेष हुइ, वली जेई मिथ्यात्ववाद ऊपरि संतोष हुइ, एतावता जिनवचन जे न मानई, किं तु मिथ्यात्व मानई तेहईहूई शुद्धहृदय निर्मलचित सत्पुरुष परम हित देवा वांछइ ॥ ६२ ॥
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[.] जेहन जिनेन्द्रनां वचन ऊपरि द्वेष हुइ, जेहनइ ट मिथ्यात्व ऊपर संतोष हुई, तीयांइनई सुद्धहृदय निर्मल चित्तना धणी परम हित देवा वांछइ ॥ ६२ ॥
^ [ जि . ] अथ पूर्वोक्त अर्थ युक्तउ करी स्थापई ।
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• अहवा सरलसहावा सुअणा सव्वाथ हुंति अविअप्पा | 20 छतविसभराण' वि कुणंति करुणं दुजीहाणं ॥ ६३ ॥
१ पापी. २ चीतइ. ३ मिच्छवायम्मि ४ द्वेष. ५ तेहरईं. ६ करिवउ. ७ एहइ. ८ मे सुहावा. ९ जि. मे. छड्डति'.
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