________________
१०७
श्रामण्योपनिषद्
मार्दवधर्मः त्यक्त-मानं सुखागारं मार्दवं कृपयान्वितम् ।
पूजया परया भक्त्या पूजयामि तदाप्यते ॥१॥ ॐ हीम् उत्तमक्षमादिदशधर्मांगाय नमः जलाद्ययं निर्वपामीति स्वाहा । मद्दउ भव-मद्दणु माण-णिकंदणु दय-धम्महु मूल जि विमलु । सव्वहं हिययारउ गुण-गण-सारउ तिसहु वउ संजम सहलु ॥२॥ मद्दउ माण-कसाय-विहंडणु, मद्दउ पंचिंदिय-मण-दंडणु । मद्दउ धम्मे करुणा-वल्ली, पसरइ चित्त-महीहिं णवल्ली ॥३।। मद्दउ जिणवर-भत्ति पयासइ, मद्दउ कुमइ-पसरु णिण्णासइ । मद्दवेण बहुविणय पवट्टइ, मद्दवेण जणवइरु उहट्टइ ॥४॥ मद्दवेण परिणाम-विसुद्धी, मद्दवेण विहु लोयहं सिद्धी । मद्दवेण दो-विहु तउ सोहइ, मद्दवेण णरु तिजगु विमोहइ ॥५॥ मद्दउ जिण-सासण जाणिज्जइ, अप्पा-पर-सरूव भाविज्जइ । मद्दउ दोस असेस णिवारइ, मद्दउ जम्म-उअहि उत्तारइ ॥६॥ सम्मद्दसंण-अंगु मद्दउ परिणामु जि मुणहु । इय परियाणि विचित्त मद्दउ धम्मु अमल थुणहु ॥७॥
ॐ ह्रीम् उत्तमक्षमादिदशधर्मांगाय पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा ।