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श्रामण्योपनिषद् आर्जवधर्मः आर्जवं स्वर्ग-सोपानं कौटिल्यादिविवर्जितम् ।
पूजया परया भक्त्या पूजयामि तदाप्तये ॥१॥ ॐ हीं परब्रह्मणे आर्जवधर्मांगाय नमः जलाद्ययं निर्वपामीति स्वाहा। धम्महु वर-लक्खणु अज्जउ थिर-मणु दुरिय-विहंडणु सुह-जणणु । तं इत्थ जि किज्जइ तं पालिज्जइ तं णिसुणिज्जइ खय-जणणु ॥२॥ जारिसु मणि-चिंतिज्जइ, तारिसु अण्णहं पुणु भासिज्जइ । किज्जइ पुणु तारिसु सुह-संचणु, तं अज्जउ गुण मुणहु अवंचणु ॥३॥ माया-सल्लु मणहु णिस्सारहु, उज्जउ धम्मु पवित्तु वियारहु । वउ तउ मायावियहु णिरत्थउ, अज्जउ सिव-पुर-पंथहु सत्थउ॥४॥ जत्थ कुडिल परिणामु जइज्जइ, तहिं अज्जउ धम्मु जि संपज्जइ । दंसण-णाण सरूव अखंडउ, परम-अतिंदिय-सुक्ख-करंडउ॥५॥ अप्पिं अप्पउ भावहु तरंडउ, एरिसु चेयण-भाव पयंडउ । सो पुणु अज्जउ धम्मे लब्भइ, अज्जवेण वइरिय-मणु खुब्भइ ॥६॥
घत्ता
अज्जउ परमप्पउ गय-संकप्पउ चिम्मित्तु जि सासउ अभउ । तं णिरु जाइज्जइ संसउ हिज्जइ पाविज्जइ जिहिं अचल-पउ॥७॥
ॐ हीं परब्रह्मणे उत्तमार्जवधर्मागाय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।