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ऋणादानप्रकरणम्
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स्वर्ण, रजत और रत्नादि गोप्य आधि है जो भोग्य योग्य नही पर रक्षणीय है। जो आधि निश्चित अवधि में नष्ट हो जाती है वह भोग्य आधि है। खेत, उपवन आदि नष्ट नहीं होते हैं उसकी भोग की अवधि तीस वर्ष की होती है।
आधिस्तु नैव भोक्तव्यो भुक्ते तु वृद्धिहानिता। गोप्यस्य नियते कालेऽतीते स्वामी धनी भवेत्॥३०॥ नष्टे तु मूल्यं देयं स्यादेवभूपापदं विना।
भोग्यस्यावधिपूर्ती च ऋक्थी स्वामी न जायते॥३१॥ ऋण दाता को आधि में प्राप्त वस्तु का भोग नहीं करना चाहिए। (आधि का) भोग करने पर ब्याज की हानि होती है। गोप्य का नियत अवधि व्यतीत हो जाने पर धनवान् (उस वस्तु) का स्वामी हो जाता है। आधि के रूप में प्राप्त वस्तु के नष्ट हो जाने पर धनवान् को उसका मूल्य ऋण लेने वाले को वापस करना चाहिए बशर्ते कि वह दैविक और राजकीय कारणों से आकस्मिक रूप से नष्ट न हुई हो। भोग की अवधि पूर्ण हुए बिना धनवान् व्यक्ति उस वस्तु का स्वामी नहीं बन सकता।
(वृ०) आधिवस्तुनि भुज्यमाने ऋणिना दृष्टे वृद्धिहानिः।
आधि (के रूप में प्राप्त) वस्तु का उपभोग करते हुये ऋणी द्वारा देखे जाने पर ब्याज की हानि होती है।
तन्नाशे तु तन्मूल्यं धनिना देयमेव।
उस (आधि के रूप में प्राप्त वस्तु) के नष्ट हो जाने पर उसका मूल्य धनवान द्वारा (ऋण लेने वाले को) अवश्य ही देय है।
यदि तन्नाशे दैवभूवपापत्कारणं न स्यात्। यदि उस (वस्तु) के नष्ट होने में देव और राजा कारण न हो। गोप्यस्य हेमरजताद्यर्थस्य नियतकालव्यतिक्रान्तिौ धनी स्वामीः स्यात्।
गोप्य अर्थात् आधि रूप में निक्षिप्त स्वर्ण-रजत आदि सम्पत्ति का (ऋण वापसी की) नियत अवधि समाप्त हो जाने पर धनवान् स्वामी हो।
भोग्याधेः स्थावरधनस्य त्ववधिसमाप्तावपि धनी स्वामी न भवति जंगमस्य तु भवत्येवेति विशेषः। यदि केनचिदृणिना क्षेत्रमाधिं कृत्वा धनिनो रजतानि गृहीतानि पुनर्दैवयोगेन तत्क्षेत्रं नद्याद्यपहृतं तदा ऋणिनान्य आधिः स्थापनीयोऽन्यथा रजतानि देयादित्याह।
नद्या भूपेन वा क्षेत्रं हृतं चेदृणिना पुनः। आधिरन्यः प्रदेयो वा दीनत्वे धनिने धनम्॥३२॥