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लघ्वर्हन्नीति
स्वक्षेत्रविषये वादो न कार्यः ऋणिना कदा।
धनिनो नापराधोऽत्र स्वकर्मफलमेव तत्॥३३॥ (आधि के रूप में धनवान् को प्रदत्त) खेत यदि नदी द्वारा हर लिया जाय अर्थात् खेत, नदी की धारा में विलीन हो जाय अथवा राजा द्वारा अधिग्रहण कर लिया जाय तो (ऋण लेने वाला) दूसरा (खेत) प्रदान करे अथवा गरीब होने पर (खेत न होने पर) धनी को धन देना चाहिए। (नदी के कारण अथवा राजा के कारण खेत नष्ट होने पर) अपने खेत के विषय में ऋणी को कभी वाद नहीं करना चाहिए, इसमें धनी का अपराध नहीं है, अपने कर्म का ही फल है। अन्यच्च -
पुराणतीर्थयात्रादिबन्धकान्तमृणी धनम्।
प्रतिमासं मिषं दत्वा काले द्रव्यं समर्पयेत्॥३४॥ यदि ऋणी पुराण-(श्रवण), तीर्थयात्रा आदि (समाप्त होने पर ऋण लौटाने हेतु वचन) बद्ध है तो प्रत्येक महीने ब्याज देकर समय पर मूलधन (ऋणदाता को) वापस कर देना चाहिए।
(वृ०) पुराणतीर्थयात्रादिबन्धकगृहीतधनं ऋणी समिषं देयादेव। यदि कश्चित् प्रपञ्चे नाधिं गृहीत्वा रजतनियुक्तलेखं च कारयित्वा रौप्यान्न ददाति तदा ऋणी किं कुर्यादित्याह -
___ यदि ऋणदाता ऋणी से छलपूर्वक आधि को ग्रहण कर ले और शपथपत्र भी लिखवा ले परन्तु ऋण न दे तो ऐसी स्थिति में ऋणी को क्या करना चाहिए, इसका कथन -
ज्ञापयित्वा तदुदन्तमृणी भूपाधिकारिणम्।
गृह्णीयादाधिलेखं स्वं सो दण्ड्यः शतरौप्यकैः॥३५॥ उस समय ऋणी को चाहिए कि वह राज्याधिकारियों को सूचित कर अपना आधि और लेख प्राप्त कर ले। वह धनी सौ रुपये के दण्ड का पात्र है। (वृ०) ऋणविषये मिषग्रहणप्रकारमाह
रजतशते दत्ते खलु रौप्ययुगं ग्राह्यमेव मिषवृद्धौ।
प्रतिमासं दत्तं चेन्मिषं तदा मूलमवधौ च॥३६॥ ऋणी को सौ रुपया देने पर प्रत्येक मास ब्याज वृद्धि के रूप में दो रुपया ग्रहण करना चाहिए। यदि ब्याज प्रतिमास दिया हुआ है तो निश्चित समय पर मूलधन वापस करना चाहिए।