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आस्रवादीनां प्ररूपणा कायवाङ्मनःक्रिया योगः क्रिया कर्म-व्यापार इत्यनान्तरम् । युज्यत इति योगः, युज्यते वानेन करणभूतेनात्मा' कर्मणेति योगो व्यापार एव । स आस्रवः, आस्रवत्यनेन कर्मेत्यास्रवः सरःसलिलावाहिस्रोतोवत् । शुभः स चास्रवः पुण्यस्य मुणितव्यो विपरीतो भवति पापस्येति । आत्मनि कर्माणुप्रवेशमानहेतुरास्रव इति ॥७९॥ उक्त आस्रवः, सांप्रतं बन्ध उच्यते
सकषायत्ता जीवो जोगे कम्मस्स पुग्गले लेइ ।
सो बंधो पयइठिईअणुभागपएसभेओ ओं ॥८॥ कषायाः क्रोधादयः, सह कषायैः सकषायः, तद्भावः तस्मात् सकषायत्वाज्जीवो योग्यानुचितान् । कर्मणः ज्ञानावरणादेः। पुद्गलान् परमाणून् । लात्यादत्ते गृह्णातीत्यनान्तरम् । स बन्धः योऽसौ तथास्थित्या त्वादानविशेषः स बन्ध इत्युच्यते । स च प्रकृतिस्थित्यनुभाव-प्रदेशभेद एव भवति । प्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणादिप्रकृतिरूपः। स्थितिबन्धोऽस्यैव जघन्येतरा स्थितिः । अनुभावबन्धो यस्य यथायत्यां विपाकानुभवनमिति । प्रदेशबन्धस्त्वात्मप्रदेशैर्योगस्तथा कालेनैव . विशिष्टविपाकरहितं वेदनमिति ॥८॥
विवेचन-क्रियाका अर्थ व्यापार है। 'यज्यते अनेनेति योगः' इस निरुक्तिके अनुसार जीव जिस व्यापारके द्वारा कर्मसे सम्बद्ध होता है उस काय, वचन और मनके व्यापारका नाम योग है । इस योगको ही आस्रव कहा जाता है। कारण यह कि 'आस्रवति अनेन कम इति आस्रवः' इस निरुक्तिके अनुसार जिसके द्वारा तालाबमें पानीको लानेवाले स्रोतके समान आत्मामें कर्म आता है उसे आस्रव कहा जाता है। यह आस्रव शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें पुण्य कर्मका जो आस्रव होता है उसे शुभ और पाप कर्मका जो आस्रव होता है उसे अशुभ आस्रव कहते हैं। यह आस्रव केवल आत्मामें कर्मपरमाणुओंका प्रवेश कराता है ॥७२॥
आगे बन्ध तत्त्वका स्वरूप कहा जाता है
कषाय सहित होनेके कारण जोव जो कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण किया करता है उसे बन्ध कहते हैं। वह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है।
विवेचन-जिस प्रकार सन्तप्त लोहेके गोलेको पानीमें डालनेपर वह सब ओरसे पानीको ग्रहण किया करता है उसी प्रकार क्रोधादि कषायोंसे सन्तप्त हा जीव जो सब ओरसे कर्मके योग्य युद्गलोंको ग्रहण किया करता है उसे बन्ध कहा जाता है। वह चार प्रकारका है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें ज्ञानावरणादि रूप स्वभावको लिये हुए जो कर्म पुद्गलोंका जीवके साथ सम्बन्ध होता है, इसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। ज्ञानावरणादि रूप एन पुद्गलोंके मूल व उत्तर प्रकृतियोंके रूपमें आत्माके साथ सम्बद्ध रहनेके उत्कृष्ट और जघन्य कालको स्थितिबन्ध कहा जाता है। उन्हीं कमपुलोंमें जो होनाधिक फलदान शक्तिका प्रादुर्भाव होता है, जिसे आगामी कालमें यथासमय भोगा जाता है, उसका नाम अनुभागबन्ध है। इन्हीं कर्मपरमाणुओंका आत्माके प्रदेशोंके साथ जो एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध होता है तथा समयानुसार विशिष्ट विपाकसे रहित वेदन किया जाता है, यह प्रदेशबन्ध कहलाता है। उक्त चार प्रकारके बन्धमें प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगके आश्रयसे तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायके आश्रयसे हुआ करते हैं ।।८०॥ १. अ वानेन प्रकारेण भूतेनात्मा । २. अ बंधोच्यते । ३. ज पयतिट्ठितिअणु । ४. अ भेउ उ ।