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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[७९तत्र धर्माधर्माकाशा गति-स्थित्यवगाहैगम्यन्ते, पुद्गलाश्च स्पर्शादिभिः । असमासकरणं धर्मादीनां त्रयाणामप्यमूर्तत्वेन भिन्नज्ञातीयख्यापनार्थम् । इत्येष गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु धर्मादिग्रहणेन पदैकदेशेऽपि पदप्रयोगदर्शनाद्धर्मास्तिकायादयो गृहयन्ते । स्वरूपं चैतेषाम् -
जीवानां पुद्गलानां च गत्युपष्टम्भकारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥ जीवानां पुद्गलानां च स्थित्युपष्टम्भकारणम् । अधर्मः पुरुषस्येव तिष्ठासोरवनिस्समा ।। जीवानां पुद्गलानां च धर्माधर्मास्तिकाययोः । बादरापां घटो यद्वदाकाशमवकाशदम् ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दा मूर्तस्वभावकाः ।
संघातभेदनिष्पन्नाः पुद्गला जिनदेशिताः ॥ इति कृतं विस्तरेण ॥७॥ उक्ता अजीवाः सांप्रतमास्रवद्वारमाह
काय-वय-मणोकिरिया जोगो सो आसवो सुहो सो अ । पुन्नस्स मुणेयव्वो विवरीओ होइ पावस्स ||७९॥
धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस प्रकारसे अजीव चार प्रकारका है। ये धर्मादि अजीव यथाक्रमसे गति, स्थिति, अवगाह और स्पर्श आदिकोंसे जाने जाते हैं।
विवेचन-गाथामें उपयुक्त धर्म आदि शब्दोंसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकायको ग्रहण करना चाहिए। कारण यह कि पदके एक देशमें भी पदका प्रयोग देखा जाता है । धर्मास्तिकायका परिज्ञान जीव-पुद्गलोंको गतिसे, अधर्मास्तिकायका उनकी स्थितिसे, आकाशका उनके अवगाहनसे तथा पुद्गलोंका स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णके द्वारा होता . है। यहां गाथामें धर्म, अधर्म और आकाश इन पदोंके मध्यमें द्वन्द्व समास करके भी जो पुद्गल - शब्दको पृथक् रखा गया है-उसके साथ समास नहीं किया गया है। उससे यह सूचित किया गया है कि उक्त धर्मादि तीन अमर्त अस्तिकाय उस मर्त पूगल अस्तिकायसे भिन्न है। उनका स्वरूप इस प्रकार है-जिस प्रकार चक्षु इन्द्रियसे युक्त प्राणीके लिए पदार्थों के देखने में दीपक उदासीन कारण होता है उसी प्रकार जो गतिपरिणत जीवों और पुद्गलोंके गमनमें अप्रेरक कारण होता है उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं । इसी प्रकार जैसे ठहरनेके इच्छुक पुरुषके लिए पृथिवी अप्रेरक कारण होती है वैसे ही जो स्थितिपरिणत जीवों व पुद्गलोंके स्थित होनेमें अप्रेरक कारण होता है उसका नाम अधर्मास्तिकाय है । जिस प्रकार घड़ा स्थूल जल को स्थान दिया करता है उसी प्रकार जो जीवों, पुद्गलों तथा धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायको स्थान देता है वह आकाश कहलाता है । जो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दसे युक्त होते हुए मूर्त स्वभावके धारक होकर संघात, भेद और संघात-भेदसे उत्पन्न होते हैं उन्हें जिन देवने पुद्गल कहा है ।।७८॥
आगे क्रमप्राप्त आस्रव तत्त्वका स्वरूप कहा जाता है
काय, वचन और मनकी क्रियाका नाम योग है। इस योगको आस्रव कहा जाता है। पुण्य कर्मके उस आस्रवको शुभ और पापके उस आस्रवको विपरीत ( अशुभ ) जानना चाहिए।