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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[८१उक्तो बन्ध इदानीं संवरमाह
आसवनिरोह संवर समिईगुत्ताइएहि नायव्यो ।
कमाणणुवायाणं भावत्थो होइ एयस्स' ॥८॥ आश्रवनिरोधः संवरः-आश्रव उक्त एव, तनिरोधः कात्स्न्येन निश्चयतः सर्वसंवर उच्यते । शेषो व्यवहारसंवर इति । स समिति-गुप्त्यादिभितिव्यः। उक्तं च-स समितिगुप्तिधर्मानप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः इत्यादि । कर्मणामनुपादानं भावार्थो भवत्येतस्य संवरस्य । इह यावानेवांशः कर्मणामनुपादानहेतुधर्मादीनां तावानेवेह गद्यते, शेषस्य तपस्येवान्तर्भावात तस्य च प्रागुपात्तक्षयनिमित्तत्वादिति । अत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रत्वादारम्भस्येति ॥८॥ उक्तः संवरः, सांप्रतं निर्जरोच्यते
तवसा उ निज्जरा इह निज्जरणं खवणनासमेगहा।
कम्माभावापायणमिह निज्जरमो जिना विति ॥८२॥ तपसा तु निर्जरा इह-अनशनादिभेदभिन्नं तपः तेन प्रागुपातस्य कर्मणो निर्जरा भवति । निर्जराशब्दार्थमेवाह-निर्जरणं क्षपणं नाश इत्येकार्थाः पर्यायशब्दा इति । नानादेशजविनेयगणप्रतिपत्त्यर्थ अज्ञातज्ञापनार्थ चैतेषामुपादानमदुष्टमेव । अस्या एव भावार्थमाह-कर्माभावापादानमिह निर्जरा जिना ब्रुवते प्रकटार्थमेतदिति ॥८२॥
अब बन्धके अनन्तर संवरके स्वरूपका निर्देश किया जाता है
समिति और गुप्ति आदिके द्वारा जो पूर्वोक्त आस्रवका निरोध होता है उसे संवर जानना चाहिए। नवीन कर्मोंका ग्रहण न होना संवर है, यह उसका भावार्थ है।
विवेचन-जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र (९-२) में निर्देश किया गया है, वह संवर-कर्मागमनका निरोध-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रके आश्रयसे होता है। वह सर्वसंवर और व्यवहारसंवरके भेदसे दो प्रकारका है। कर्मागमके कारणभूत मिथ्यात्वादि परिणामोंका पूर्णतया अभाव हो जानेपर जो संवर होता है उसे निश्चयसे सर्वसंवर कहा जाता है, जो बादर व सूक्ष्म योगके निरोधके समय होता है। शेष-चारियप्रतिपत्तिके प्रारम्भसे लेकर शेष समयमें जो संवर होता है वह-व्यवहारसंवर कहलाता है। यहां इतना विशेष समझना चाहिए कि उक्त गुप्ति-समिति आदिका जितना अंश कर्मोंके न आनेका कारण होता है उतने मात्र अंशको हो संवरके रूपमें ग्रहण करना चाहिए, शेष अंशको-जो कर्मनिर्जराका कारण होतपके अन्तर्गत जानना चाहिए ॥८१||
__ अब निर्जराका निरूपण करते हैं__ तपसे निर्जरा होती है। निर्जरण, क्षपण और नाश ये समानार्थक शब्द हैं। तदनुसार कर्मों के अभावके आपादनको यहां जिन भगवान् निर्जरा कहते हैं।
विवेचन-इच्छाके निरोधको तप कहा जाता है। वह बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें अनशन व ऊनोदर आदिको बाह्य तप तथा प्रायश्चित्त व विनय आदिको अभ्यन्तर तप जानना चाहिए। इस तपके द्वारा जो पूर्वसंचित कर्मका देशतः क्षय-आत्मासे पृथग्भाव होता है उसे निर्जरा कहा गया है ।।८२।। १. अहोइ कायस्स । २. सर्वसंवरोच्यते । ३.भ हेतोर्धम्मादीनां । ४. अणियर सो जिणा ।