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सम्यग्दृष्टिस्वरूपम् उक्ता निर्जरा, इदानों मोक्षमाह
नीसेसकम्मविगमो मुक्खो जीवस्स सुद्धरूवस्स'।
साई अपज्जवसाणं अव्वाबाहं अवत्थाणं ॥८३।। निःशेषकर्मविगमो मोक्षः, कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्ष इति वचनात् जीवस्य शुद्धस्वरूपस्य कर्मसंयोगापादितरूपरहितस्येत्यर्थः। साद्यपर्यवसानं अव्याबाधं ज्याबाधावजितमवस्थानमवस्थितिः जीवस्यासौ मोक्ष इति । साद्यपर्यवसानता चेह व्यक्त्यपेक्षया, न तु सामान्येन । मोक्षस्यापि अनादिमत्त्वमिति ॥८॥
उक्तं तत्त्वम्, अधुना प्रकृतं योजयति___ एयमिह सद्दहंतो सम्मट्ठिी तओ अ नियमेण ।
भवनिव्वेयगुणाओ पसमाइगुणासओ होइ ।।८४॥ एतदनन्तरोदितं जीवाजीवादि, इह लोके प्रवचने वा, श्रद्दधानः एवमेवेदमित्यान्तःकरणतया प्रतिपद्यमानः सम्यग्दृष्टिरभिधीयते अविपरीतदर्शनादिति, तकश्च नियमेनासाववश्यंतया, भन्दनिर्वेदगुणात् संसारनिर्वेदगुणेन, प्रशमादिगुणाश्रयो भवति उक्तलक्षणानां प्रशमादिगुणानामाधारी भवति । भवति चेत्थंज्ञाने संसारनिर्वेदगुणः, तस्माच्च प्रशमादयः । प्रतीतमेतदिति ॥८४॥
अस्यैव व्यतिरेकमाह
आगे अन्तिम मोक्ष तत्त्वका स्वरूप कहा जाता है
समस्त कर्मों के विगम-आत्मासे पृथक् हो जाने का नाम मोक्ष है जो शुद्धरूप-कर्मके संयोगसे प्राप्त विभाव भावसे रहित स्वाभाविक स्वरूपसे युक्त-जीवके सादि-अपर्यवसन निर्बाध अवस्थानरूप है।
विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जीवके साथ जबतक कर्मका सम्बन्ध रहता है तबतक उसका स्वाभाविक स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता, वह समस्त ज्ञानावरणादि कर्मों के आत्मासे पथक हो जानेपर ही प्रादुर्भूत होता है। यह जो जीवके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति है उसीका नाम मोक्ष है। यह मोक्षरूप जोवको अवस्था सादि होकर अनन्तकाल तक रहनेवाली है तथा बाधक कर्मोके हट जानेसे वह निराकुल निर्बाध सुखसे सम्पन्न है ॥८३।।
इस प्रसंगप्राप्त जोवादि तत्वोंका व्याख्यान करके अब सम्यग्दृष्टिके स्वरूपका निर्देश करते हुए उसके गुणोंको प्रकट किया जाता है
इस प्रकारसे यहां श्रद्धान करता हुआ-प्रवचनमें प्रतिपादित जीवादि तत्त्व 'इसी प्रकार हैं, अन्यथा नहीं हैं। इस प्रकार निर्मल अन्तःकरणसे श्रद्धान करनेवाला-जीव सम्यग्दृष्टि होता है। वह संसारसे होनेवाली विरक्तिरूप गुणसे नियमतः पूर्वोक्त (५३-६०) प्रशमादि गुणोंका आश्रय (भाजन ) होता है ।।८४||
आगे इससे विपरीत अवस्थामें क्या स्थिति होती है, इसे स्पष्ट किया जाता है
३. अ अतोऽग्रे 'जीवस्यासी मोक्ष'पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति ।
१. अ अद्धरूवस्स । २. असोइ। ४. अप्रकृते ।