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सम्यक्त्वस्वरूपम्
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एवंविधमेव सम्यक्त्वं इत्येतत्प्रतिपादयन्नाह
जं मोणं तं सम्मं जं सम्मं तमिह होइ मोणं ति ।
निच्छयओ इयरस्य उ सम्म सम्मत्तहऊ वि ॥६१॥ मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः तपस्वी, तद्भावो मौनम्, अविकलं मुनिवृत्तमित्यर्थः । यन्मोनं तत्सम्यक् सम्यक्त्वम् । यत्सम्यक् सम्यक्त्वं तदिह भवति मौनमिति । उक्तं चाचाराङ्गे
जं मोणं ति पासहा तं सम्म ति पासहा ।
जं सम्म ति पासहा तं मोणं ति पासहा ।। इत्यादि निश्चयतः परमार्थेन निश्चयनयमतेनैव एतदेवमिति,
जो जहवायं न कुणइ मिच्छट्टिी तओ हु को अन्नो।
वड्ढेइ य मिच्छत्त परस्स संकं जणेमाणो । इत्यादिवचनप्रामाण्यात् । इतरस्य तु व्यवहारनयस्य सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि अर्हच्छासनप्रीत्यादि, कारणे कार्योपचारात् । एताप शुद्धचेतसां पारम्पर्येणापवर्गहेतुरिति । उक्तं चसमयमें अधिकसे अधिक उपार्धपुद्गलपरावर्त कालके भीतर ही संसाररूप समुद्र को लांघता है-- वह भयानक चतुर्गतिस्वरूप संसारसे शीघ्र मुक्त हो जाता है ॥६॥
आगे मुनिधर्मको ही सम्यक्त्वका निर्देश किया जाता है
यथार्थमें यहां निश्चयनयकी अपेक्षा जो मुनिका चारित्र है. वह सम्यक्त्व है और जो सम्यक्त्व है वह मुनिका चारित्र है । पर व्यवहार नयको अपेक्षा सम्यक्त्वका जो कारण है उसे भी सम्यक्त्व कहा जाता है।
विवेचन-प्रकृत गाथामें निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंकी अपेक्षा सम्यक्त्वके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि निश्चयसे जो मुनिधर्म है वही सम्यक्त्व है और जो सम्यक्त्व है वही मुनिधर्म है-दोनोंमें कुछ भेद नहीं है। कारण यह कि निश्चयसे आत्म-परविवेकका होना ही सम्यक्त्व है जो उस मुनिधर्मसे भिन्न नहीं है। इस आत्म-परविवेकके प्रकट हो जानेपर प्राणीको हेय और उपादेयका ज्ञान होता है, जिसके आश्रयसे वह पापाचरण कर संयममें प्रवृत्त होता है। 'मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः' इस निरुक्तिके अनुसार मुनिका अर्थ है तोनों कालकी अवस्थाको समझनेवाला तपस्वी। इसीसे निश्चयनयकी अपेक्षा इन दोनोंमें भेद नहीं किया गया। टीकामें इसकी पुष्टि आचारांग सूत्र (१५६, पृ. १९२ ) से को गयो है। जो यथार्थ आचरण नहीं करता है उससे अन्य मिथ्यादृष्टि और कौन हो सकता है ? उसे ही मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। ऐसा मिथ्यादृष्टि शंकाको उत्पन्न करता हुआ दूसरेके भी मिथ्यात्वको बढ़ाता है। व्यवहारनयसे जो जिनशासन विषयक अनुराग आदि सम्यक्त्वके कारण हैं उन्हें भी कारणमें कार्यके उपचारसे सम्यक्त्व कहा जाता है, क्योंकि परम्परासे वे भो मुक्तिके कारण हैं। जैनशासनकी यह एक विशेषता है कि वहां वस्तुतत्त्वका विचार दुराग्रहको छोड़कर अनेकान्त दृष्टिसे -निश्चय व व्यवहार नयोंके आधारसे-किया गया है। परस्पर सापेक्ष इन दानों नयोंके बिना वस्तुके स्वरूपको यथार्थमें समझा ही नहीं जा सकता। इसीसे आगम में यह कहा गया है कि जो आत्महितैषो भव्य जीव जिनमतको स्वीकार करता
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जहावायं।