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श्रावकप्राप्तिः
[६२जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छए मुयह ।
ववहारनय उच्छेए तित्थुच्छेओ जोऽवस्सं ॥ इत्यादीनि ॥६॥ वाचकमुख्येनोक्तम्--तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तदपि प्रशमाविलिङ्गमेवेति दर्शयन्नाह
तत्तत्थसद्दहाणं सम्मत्तं तंमि पसममाईया ।
पढमकसाओवसमादविक्खया हुति नियमेण ॥६२॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं' सम्यक्त्वम् । तस्मिन् प्रशमादयोऽनन्तरोदिताः। प्रथमकषायोपशमाघ. पेक्षया भवन्ति नियमेन । अयमत्र भावार्थ:-न ह्यनन्तानुबन्धिक्षयोपशमादिमन्तरेण तत्त्वार्थश्रद्धानं भवति । सति च तत्क्षयोपशमे तदुदयवद्भधः सकाशादपेक्षयास्य प्रशमादयो विद्यन्त एवेति तत्त्वार्य श्रद्धानं सम्यक्त्वमित्युक्तम् ॥२॥ के एते तत्त्वार्था इत्येतदभिर्धित्सयाह
जीवाजीवासवबंधसंवरा निज्जरा य मुक्खो य ।
तत्तत्था इत्थं पुण दुविहा जीवा समक्खाया ॥६३॥ जीवाजीवात्रवबन्धसंवरा निर्जरा च मोक्षश्च तत्त्वार्था इति । एषां स्वरूपं वक्ष्यत्येव । असमासकरणं गाथाभंगभयाथं निर्जरामोक्षयोः फलत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थ चेति । अत्र पुनस्तत्त्वार्थचिन्तायाम् । द्विविधा जीवाः समाख्यातास्तीर्थकरगणधरैरिति ॥३॥ है उसे व्यवहार और निश्चयनयोंको नहीं छोड़ना चाहिए। इसका कारण यह है कि व्यवहार नयके छोड़ देनेपर जैसे तीर्थका-धर्मप्रवर्तनका-विनाश अवश्यम्भावी है वैसे ही निश्चयनयके छोड़ देनेपर तत्त्वका-वस्तुव्यवस्थाका--विनाश भी अनिवार्य है। अतः तत्त्वको समझनेके लिए मुख्यता व गौणता या विवक्षा व अविवक्षाके आधारसे यथासम्भव उक्त दोनों नयोंका उपयोग अवश्य करना चाहिए ॥६॥
__ आगे वाचक उमास्वातिके द्वारा जिस सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्वार्थश्रद्धान निर्दिष्ट किया गया है वह प्रशम-संवेगादिका हेतु है, इसे दिखलाते हैं
जीवाजीवादि तत्त्वार्थों के श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है। उसके हो जानेपर प्रथम कषायके उपशम आदिकी अपेक्षासे पूर्वोक्त प्रशम-संवेग आदि नियमसे होते हैं।
विवेचन-तत्त्वार्थाधिगम सत्र (१-२) में जीव-अजीव आदि सात तत्त्वार्थों के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा गया है। जिस जीवके तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप यह सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है उसके पूर्वोक्त प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये गुण नियमसे होते हैं। इसका कारण यह है कि वह तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन प्रथम अनन्तानुबन्धी कषायके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके होनेपर ही होता है-उसके बिना नहीं होता। उक्त प्रशमादि भी प्रकृत कषायके उपशमादिकी अपेक्षा रखते हैं। यही कारण है जो उसके उदय युक्त जीवोंके असम्भव वे प्रशमादि भाव सम्यग्दृष्टिके नियमसे होते हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शनके अविनाभावी वे प्रशमादिक उस ( सम्यग्दर्शन ) के परिचायक होते हैं ॥६२॥
आगे उन तत्त्वार्थों का निर्देश किया जाता है१. अ 'तत्त्वार्थश्रद्धानं' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम-'तत्त्वार्थश्रद्धानं' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ त एते वत्वार्थाः इति तदभि । ३. अ एत्थ ।