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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[६०मन्यते प्रतिपद्यते । तदेव सत्यं निःशहू शङ्कारहितम् । यज्जिनः प्रज्ञप्तं यत्तीर्थकरैः प्रतिपादितम् । शुभपरिणामः सन् साकल्येनानन्तरोदितसमस्तगुणान्वितः। सर्व समस्तं मन्यते, न तु किंचिन्मन्यते किंचिन्नेति; भगवत्यविश्वासायोगांत् । पुनरपि स एव विशिष्यते। किविशिष्टः सन् ? कांक्षादिविश्रोतसिकारहितः कांक्षा अन्योन्यदर्शनग्राह इत्युच्यते, आदिशब्दाद्विचिकित्सापरिग्रहः, विश्रोतसिका तु संयम-शस्यमङ्गीकृत्याध्यवसायसलिलस्य विश्रोतो गमनमिति ॥५२॥ उपसंहरन्नाह
एवंविहपरिणामो सम्मदिही जिणेहिं पन्नत्तो।
एसो य भवसमुदं लंघइ थोवेण कालेण ॥६॥ एवंविधपरिणाम इत्यनन्तरोदितप्रशमादिपरिणामः । सम्यग्दृष्टिजनैः प्रज्ञप्त इति प्रकटार्थः । अस्यैव फलमाह-एष च भवसमुद्रं लंधयति अतिक्रामति । स्तोकेन कालेन, प्राप्तबीजत्वादुत्कृष्टतोऽप्युपार्धपुद्गलपरावर्तान्तः सिद्धिप्राप्तेरिति ॥६०॥
अब सम्यग्दृष्टिके आस्तिक्य गुणके अस्तित्वको दिखलाते हैं
आस्तिक्य आदि रूप शुभ परिणामसे युक्त सम्यग्दृष्टि जीव कांक्षा आदि विश्रोतसिकाप्रतिकूल प्रवाह-से रहित होकर जिनदेवके द्वारा जो भी वस्तुका स्वरूप कहा गया है उस सभीको सत्य मानता है।
विवेचन-जीवादि पदार्थ यथासम्भव अपने-अपने स्वभावके साथ वर्तमान है, इस प्रकारको बुद्धिका नाम आस्तिक्य है, (त. वा. १, २, ३० । 'आत्मा आदि पदार्थ समूह है' इस प्रकारकी बद्धि जिसके होती है उसे आस्तिक और उसकी इस प्रकारको परिणतिको आस्तिक्य कहा जाता है । यह गुण सम्यग्दृष्टि जीवमें स्वभावतः होता है। जिन भगवान्के द्वारा जीवादि पदार्थोंका जैसा स्वरूप कहा गया है उसे हो वह यथार्थ मानता है। कारण यह कि वह यह जानता है कि जिन भगवान् सर्वज्ञ व वीतराग हैं, अतः वे वस्तुस्वरूपका अन्यथा कथन नहीं कर सकते । असत्य वही बोलता है जो या तो अल्पज्ञ हो या राग-द्वेषके वशीभूत हो। सो जिन भगवान्में इन दोनोंका . हो अभाव है। अतएव उनसे असत्यभाषणको सम्भावना नहीं की जा सकती। ऐसा सम्यग्दृष्टिके दृढ़ विश्वास हुआ करता है। यही आस्तिक्य गुणका लक्षण है। सम्यग्दृष्टि जीव इस आस्तिक्य गुण के साथ पूर्वनिर्दिष्ट प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पासे संयक्त होता है। साथ ही वह सम्यक्त्वको मलिन करनेवाले कांक्षा व विचिकित्सा आदि अतिचारोंसे रहितं भी होता है। इन अतिचारोंका स्वरूप ग्रन्थकारके द्वारा आगे स्वयं निर्दिष्ट किया जानेवाला है। (८७-८८)। यहां कांक्षा आदिको विश्रोतसिका कहा गया है। उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार खेतमें बोयी गयी फसलको वृद्धिके लिए उसका जलसे सिंचन किया जाता है, पर सिंचनके लिए उपयुक्त जलका प्रवाह यदि विपरीत दिशामें जानेवाला हो तो उससे फसलका संरक्षण व संवर्धन नहीं हो सकता है, ठीक इसी प्रकार संयमका संरक्षण व संवर्धन करनेवाला वह सम्यक्त्व यदि कांक्षा आदिसे मलिन हो रहा हो तो उससे स्वीकृत संयमका संरक्षण व संवर्धन नहीं हो सकता है। इसीसे सम्यग्दृष्टिको उनसे रहित कहा गया है ॥५९॥
अब इस सबका उपसंहार किया जाता है
इस प्रकार जिन देवके द्वारा सम्यग्दृष्टि जीवको उक्त प्रकारके प्रशम-संवेगादिरूप शुभ परिणामोंसे युक्त कहा गया है। इस प्रकारकी उत्तम परिणतिसे युक्त यह सम्यग्दृष्टि ही थोड़े