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उपशम-संवेगादिस्वरूपम् नारयतिरियनरामरभवेसु निव्वेयओ वसइ दुक्खं ।
अकयपरलोयमग्गो ममत्तविसवेगरहिओ वि ॥५७॥ ____नारक-तिर्यनरामरभवेषु सर्वेष्वेव । निर्वेदतो निर्वेदेन कारणेन वसति दुःखम् । फिविशिष्टः सन् ? अकृतपरलोकमार्गः अकृतसदनुष्ठान इत्यर्थः । अयं हि जीवलोके परलोकानुष्ठानमन्तरेण सर्वमेवासारं मन्यते इति । ममत्वविषवेगरहितोऽपि तथा ह्ययं प्रेकृत्या निर्ममत्व एव भवति, विदिततत्त्वत्वादिति ॥५७॥ तथा
दट्टण पाणिनिवहं भीमे भवसागरंमि दुक्खतं ।
अविसेसओ णुकंपं दुहावि सामत्थओ कुणइ ।।५८॥ दृष्ट्वा प्राणिनिवहं जीवसंधातम् । क? भीमे भयानके । भवसागरे संसारसमुद्रे । दुःखातं शारीर-मानसैदुःखैरभिभूतमित्यर्थः । अविशेषतः सामान्येनात्मीयेतरविचाराभावेनेत्यर्थः । अनुकम्पां दयाम् द्विधापि द्रव्यतो भावतश्च-द्रव्यतः प्राशुकपिण्डादिदानेन, भावतो मार्गयोजनया। सामर्थ्यतः स्वशक्त्यनुरूपं करोतीति ॥५८॥
मन्नइ तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहि पन्नत्तं । सुहपरिणामो सव्वं कंक्खाइविसुत्तियारहिओं ॥१९॥
आगे निर्वेदका स्वरूप कहा जाता है
ममतारूप विषके वेगसे रहित भी प्राणी परलोकके मार्गको न करके-उत्तम परलोकके कारणभूत सदाचरणको न करके निर्वेदके आश्रयसे नारक, तिथंच, मनुष्य और देव पर्यायोंमें दुखपूर्वक रहता है।
" विवेचन–नारक, तियंच और कुमानुष अवस्थाका नाम निर्वेद है (दशवे. नियुक्ति २०३)। तत्वार्थाधिगमभाष्यको सिद्धसेन गणि विरचित वृत्ति (१-३) के अनुसार विषयोंमें जो अनासक्ति होती है उसे निर्वेद कहा गया है । यहींपर आगे (७-७) पुनः यह कहा गया है कि शरीर, भोग, संसार और विषयोंसे जो विमुखता, उद्वेग अथवा विरक्ति होती है उसका नाम निर्वेद है। प्रकृत
थाका अभिप्राय यह है कि सम्यग्दष्टि जीव निर्वेदके आश्रयसे नारक आदि भवोंमें दुखपूर्वक रहता है । वह ममत्वभावसे रहित होता हुआ भो यद्यपि उत्तम परलोकके योग्य आचरण नहीं कर पाता है, फिर भी वह उन्हें कष्टकर मानता है व उनको ओरसे विमुख रहता है ।।५७|| ...... आगे अनुकम्पाके स्वरूपको दिखलाते हैं
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सम्यग्दृष्टि जीव भयानक संसाररूप समुद्र में दुःखोंसे पीड़ित प्राणीसमूहको देखकर बिना किसी विशेषताके-समानरूपसे यथाशक्ति द्रव्य व भावके भेदसे दोनों प्रकारको अनुकम्पाको करता है । अभिप्राय यह है कि चारों गतियोंमें परिभ्रमण करते हुए प्राणी अनेक प्रकारके शारीरिक व मानसिक दुखोंसे पीड़ित रहते हैं। उन्हें इस प्रकार दुखी देखकर सम्यग्दृष्टि जीव स्वभावतः उनके दुखको अपना समझता हुआ यथायोग्य उन्हें प्रासुक भोजनादि देकर जहां द्रव्यसे अनुकम्पा करता है वहां उन्हें सन्मार्गमें लगाकर वह भावसे भी अनुकम्पा करता है। यह अनुकम्पाका कार्य वह अपना व परका भेद न करके सभीके प्रति समान रूपसे करता है। उपर्युक्त प्रशमादिकके समान यह भी उसके सम्यक्त्वका परिचायक है ॥५८॥
१. अ तथा प्र । २. अ तत्त्वादिति । ३. म विसोत्तियारहित ।