________________
श्रावकज्ञप्तिः
[ ५५पयईइ व कम्माणं वियाणिउं वा विवागमसुहं ति ।
अवरद्धेवि न कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥५५॥ प्रकृत्या वा सम्यक्त्वाणुवेदकजीवस्वभावेन वा । कर्मणां कषायनिबन्धनानाम् । विज्ञाय वा विपाकमशुभमिति । तथाहि-कषायाविष्टोऽन्तमुहूर्तेन यत्कर्म बध्नाति तदनेकाभिः सागरोपमकोटाकोटिभिरपि दुःखेन वेदयतीत्यशुभो विपाकः, एतत् ज्ञात्वा, किम् ? अपराद्धयेऽपि न कुप्यति अपराध्यत इति अपराध्यः प्रतिकूलकारी, तस्मिन्नपि कोपं न गच्छत्युपशमतः उपशमेन हेतुना। सर्वकालयपि यावत्सम्यक्त्वपरिणाम इति ॥५५॥ तथा--
नरविबुहेसम्सुक्खं दुक्खं चिय भावओ य मन्नतो ।
संवेगओ न मुक्खं मुत्तणं किंचि पत्थेइ ॥५६॥ नर-विबुधेश्वरसौख्यं चक्रवर्तीन्द्रसौख्यमित्यर्थः। अस्वाभाविकत्वात् कर्मजनितत्वात्सावसानत्वाच्च दुःखमेव। भावतःपरमार्थतो मन्यमानः। संवंगतः संवेगल हेतूना। न मोक्ष स्वाभाविकजीवरूपम्मकर्मजमपर्यवसान मुक्त्वा किंचित्प्रार्थयतेऽभिलषतीति ॥५६॥
'सम्यक्त्वसे विभूषित जीव उपशम (प्रशम) के आश्रयसे स्वभावतः अथवा कर्मों के अशुभ विपाकको जानकर सदा अपराधी प्राणीके ऊपर भी क्रोध नहीं किया करता है।
कर लेनेपर जीवका स्वभाव इस प्रकारका हो जाता है कि यदि कोई प्राणी प्रतिकूल होकर उसका अनिष्ट भी करता है तो भी वह उसके ऊपर कभी क्रोध नहीं करता । ऐसे समयमें वह यह भी करता है कि क्रोधादि कषाय हो तो कर्मबन्धके कारण हैं। कषायके वशीभूत होकर प्राणी अन्तमुहर्नमें जिस कर्मको बांधता है उसके फलको वह अनेक कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल तक कष्टके साथ सहता है। इस प्रकार कर्मके अशुभ फलको जानकर वह अपराध करनेवालेके ऊपर भी जब क्रोध नहीं करता है . तब भला वह निरपराध प्राणीके ऊपर तो क्रोध कर ही कैसे सकता है ? इस प्रकारसे जो सम्यक्त्वके प्रभावसे उसके क्रोधादि कषायोंकी स्वभावत: उपशान्ति होतो है उसीका नाम प्रशम है ॥५५॥
अब क्रमप्राप्त संवेगका स्वरूप कहा जाता है
सम्यग्दृष्टि जीव संवेगके निमित्तसे चक्रवर्ती और इन्द्रके सुखको भी यथार्थमें दुख ही मानता है। इसीसे वह मोक्षको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं चाहता है।
विवेचन यथार्थ सुख उसे ही कहा जा सकता है जहाँ कुछ भी आकुलता न हो । चक्रवर्ती और इन्द्र आदिका सुख स्थायी नहीं है--विनश्वर है, अतः वह आकुलतासे रहित नहीं हो सकता। इसीलिए सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्र व चक्रवर्ती आदिके सातावेदनीयजन्य उस सुखको विनश्वर व पापका मूल जानकर दुख ही मानता है। वास्तविक सुख परावलम्बनके बिना होता है। कर्मोदयके बिना प्राप्त होनेवाला स्वाधीन व शाश्वतिक वह सुख मोक्षमें ही सम्भव है। अतएव सम्यग्दृष्टि जोव क्षणनश्वर, पराधीन व परिणाम में दुःखोत्पादक सांसारिक सुखकी अभिलाषा न करके निर्बाध व शाश्वतिक सुखके स्थानभूत मोक्षकी ही अभिलाषा करता है। इस मोक्षको अभिलाषाका नाम ही संवेग है जो उस सम्यक्त्वके प्रकट होनेपर स्वभावतः होता है ॥५६॥ १. अ पइती इव । २. अ अविरुद्ध । ३. अ उ । ४. अ मकर्मजपर्यवसानां (अत्र 'मुक्त्वा किंचि' इत्यतोऽग्रे ५७ तमगाथायाः टीकान्तर्गत 'सर्वेष्वेव निर्वेध' 'पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति)।