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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[४६ - उपशमकश्रेणिगतस्य औपशमिकी श्रेणिमनुप्रविष्टस्य। भवत्यौपशमिकमेव सम्यक्त्वम् । तुरवधारणे । अनन्तानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयस्य चोपशमेन निवृत्तमिति कृत्वा औपशमिकम् । यो वा अकृतत्रिपुञ्जस्तथाविधपरिणामोपेतत्वात्सम्यङमिथ्यात्वोभयानिवतितत्रिपुञ्ज एव। अक्षपितमिथ्यात्वोऽक्षीणमिथ्यात्वदर्शनः, क्षायिकव्यवच्छेदार्थमेतत् । लभते प्राप्नोति सम्यक्त्वम्, तदप्यौपशमिकमेवेति ॥४५॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह
खीणमि उइन्नमि अ अणुइज्जते अ सेसमिच्छत्ते ।
अंतोमुत्तमित्तं उवसमसम्म लहइ जीवो ॥४६॥ क्षीण एवोदोणे, अनुभवेनैव भुक्त इत्यर्थः । अनुदीर्यमाणे च मन्दपरिणामतया उदयमगच्छति सति । कस्मिन् ? शेषमिथ्यात्वे, विष्कम्भितोदय इत्यर्थः। अन्तर्मुहूर्तमानं कालम्, तत ऊवं नियामकाभावेन नियमेन मिथ्यात्वप्राप्तेः। एतावन्तमेव कालमिति किम् ? औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते जीव इति ॥४६॥ इदमेव दृष्टान्तेना स्पष्टतारनभिधित्सुराह
ऊसरदेसं दड्दिल्लयं व विज्झाइ वणदवो पप्प ॥
इस मिच्छरसाणुदए उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥४७॥ ऊपरदेशं ऊपरविभागम् । ऊषरं नाम यत्र तृणादेरसंभवः । दग्धं वा पूर्वमेवाग्निना। विध्यायति वनहको दावानल प्राप्य । कुतः ? तत्र दाह्याभावात् । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः
औपशमिक सम्यक्त्व कब और कितने कालके लिए होता है, यह आगे स्पष्ट किया जाता है
उदयावली में प्रविष्ट मिथ्यात्वके क्षीण हो जाने जोर शेष मिथ्यात्वके उदयको न प्राप्त होनेपर जीव अन्तर्मुहूर्त मात्र काल तक उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥४६॥
आगे औपशमिक सम्यक्त्वको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया जाता है
जिस प्रकार ऊषर-तृणादिकी उत्पत्तिके अयोग्य-अथवा जले हुए प्रदेशको पाकर दावानल स्वयं बुझ जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्वके उदयाभावमें जीव उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥४७॥
विवेचन--चार अनन्तानुबन्धी कषायों और दर्शनमोहनीयका उपशम होनेपर जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है उसे औपमिक सम्यक्त्व कहा जाता है। वह उपशम श्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके होता है। गा. ४५ में जो 'तु' शब्दको ग्रहण किया गया है उससे यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि उपशम श्रेणिमें वह औपशमिक ही सम्यक्त्व होता है, न क्षायिक व क्षायोपशमिक । इसके अतिरिक्त जिस जीवने उस प्रकारके परिणामसे युक्त होनेके कारण दर्शनमोहनीयके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और उभय ( सम्यग्मिथ्यात्व ) रूप तीन खण्ड नहीं किया है और मिथ्यात्वका क्षय भी नहीं किया है उसके भी वह औपशमिक सम्यक्त्व होता है। मिथ्यात्वका क्षयकर देनेपर क्षायिक सम्यक्त्व होता है, न कि औपशमिक । अतः उस क्षायिक सम्यक्त्वको व्यावृत्तिके लिए यहाँ 'जिसने मिथ्यात्वका क्षय नहीं किया है' इतना विशेष कहा गया है। यह सम्यक्त्व उस अवस्थामें होता है जब कि उदयावलीमें प्रविष्ट मिथ्यात्वका अनुभवपूर्वक क्षय हो जाता है तथा शेष मिथ्यात्व उदयों नहीं रहता है। काल उसका अन्तर्मुहूर्त मात्र है। कारण इसका यह