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सस्वरूपं सम्यक्त्वस्य त्रैविध्यम्
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इय एवं तथाविधपरिणामात् मिथ्यात्वस्यानुदये सति औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते जीव इति । वनदवकल्पं ह्यत्र मिथ्यात्वम्, ऊषरादिदेशस्थानीयं तथाविधपरिणाम कण्डकमिति । आह- क्षायोपशमिकादस्य को विशेष इति उच्यते-- तत्रोपशान्तस्यापि मिथ्यात्वस्य प्रदेशानुभवोऽस्ति, न त्वौपशमि । अन्ये तु व्याचक्षते - श्रेणिमध्यवर्तिन्येवौ पशमिके प्रदेशानुभवो नास्ति, न तु द्वितीये; तथापि तत्र सम्यक्त्वाण्वनुभवाभाव एव विशेष इति ॥४७॥
औपशमिकानन्तरं क्षायिकमाह
खीणे दंसणमोहे 'तिविमि वि भवनियाणभूमि । निष्पच्चवायमउलं सम्मत्तं खाइयं होइ ॥ ४८ ॥
क्षपक श्रेणिमनुप्रविष्टस्य सतः क्षीणे दर्शनमोहनीये एकान्तेनैव प्रलयमुपगते । त्रिविधेऽपि मिथ्यात्व - सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व भेदभिन्ने । किविशिष्टे ? भवनिदानभूते भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तनः प्राणिन इति भवः संसारस्तत्कारणभूते । निःप्रत्यपायम् । अतिचारापायरहितम् । अतुलमनन्यसदृशम्, आसन्नतया मोक्षकारणत्वात् । सम्यक्त्वं प्राङ्गनिरूपितशब्दार्थं क्षायिकं भवति, मिथ्यात्वक्षयनिबन्धनत्वात् इति ॥४८॥
है कि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् नियामक न होनेसे जीव नियमसे मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है । उक्त औपशमिक सम्यक्त्वको स्पष्ट करते हुए यहां यह दृष्टान्त दिया गया है कि जिस प्रकार ऊषर देशको अथवा पूर्व में जले हुए भूमिप्रदेशको पाकर वनाग्नि दाह्य तृणादिके अभाव में स्वयमेव शान्त हो जाती है उसी प्रकार ऊषर देश जैसे परिणामको पाकर मिध्यात्वरूप वनाग्नि के उपशान्त हो जानेपर जीव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । पूर्वोक्त क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में उपशमको प्राप्त हुए मिथ्यात्वका प्रदेशोदय रहता है, परन्तु प्रकृत ओपशमिक सम्यक्त्वमें वह नहीं रहता, यह इन दोनों में विशेषता है, अन्य आचार्योंकी व्याख्याके अनुसार उस उपशान्त मिथ्यात्वका प्रदेशोदय केवल उपशम श्रेणिके मध्यवर्ती ओपशमिक सम्यक्त्वमें नहीं रहता है, किन्तु द्वितीय औपशमिकमें वह रहता ही है । फिर भी उसमें सम्यक्त्व परमाणुओं के अनुभागका अभाव विशेष ही हुआ करता है ॥४५-४७॥
आगे क्रमप्राप्त क्षायिक सम्यक्त्वके स्वरूपका निर्देश किया जाता है-
संसारके कारणभूत तीनों ही प्रकारके दर्शन मोहके क्षयको प्राप्त हो जानेपर अपाय रहित ( निर्बाध ) अनुपम क्षायिक्त सम्यक्त्व होता है ।
विवेचन – संसारपरिभ्रमणका कारण दर्शनमोहनीय कर्म है । कारण यह कि सम्यक्त्वका विघातक होनेसे वह जीवको सत्-असत् व हेय उपादेयका विवेक प्रकट नहीं होने देता । गाथामें संसारका पर्यायवाची भव शब्द प्रयुक्त हुआ है । ' भवन्ति अस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः इति भव:' इस निरुक्ति के अनुसार जिसमें प्राणी कर्मके वशीभूत हुआ करते हैं उसका सार्थक नाम भव है । उक्त दर्शनमोहनीय मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके भेदसे तीन प्रकारका है । क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके जब यह तीनों प्रकारका दर्शन मोहनीय कर्म सर्वथा विलीन हो जाता है तब उसके प्रकृत क्षायिक सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है । यह निर्मल सम्यक्त्व सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होकर मोक्षका निकटवर्ती कारण है, इसीलिए उसे अतुल ( अनुपम ) कहा गया है । गाथामें यद्यपि सामान्यसे इतना मात्र कहा गया है कि तीनों प्रकार के दर्शनमोह
१. भ श्रेणिमधिवत्तिन्यौप । २. अ तिविहंमि य भवणिदाणभूयं विणियन्ववाय । ३. मिथ्यात्वसम्यक्त्वभेदं ।