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-४५] सस्वरूपं सम्यक्त्वस्य त्रैविध्यम्
३३ व्यवहितप्रयोगः । ततश्चानुदीणं मिथ्यात्वमुपशान्तं च सम्यक्त्वं परिगृह्यते। भावार्थः पूर्ववत् । तदेवं मिश्रीभावपरिणतं क्षयोपशमस्वभावमापन्नम् । वैद्यमानमनुभूयमानं मिथ्यात्वं प्रदेशानुभवेन सम्यक्त्वं विपाकेन क्षयोपशमाभ्यां निवृत्तिमिति कृत्वा क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते आह-इदं सम्यक्त्वमौदयिको भावः, मोहनीयोदयभेदत्वात्, अतोऽयुक्तमस्य क्षायोपशमिकत्वम् ? न, अभि. प्रायापरिज्ञानात्सम्यक्त्वं हि सांसिद्धिकमात्मपरिणामरूपं ज्ञानवत्, न तु क्रोधादिवत् कर्माणुसंपकंजम् । तथा हि -तावति मिथ्यात्वधनपटले क्षीणे तथानुभवतोऽपि स्वच्छाभ्रकल्पान् सम्यक्त्वपरमाणून् तथाविधसवितृप्रकाशवत् सहज एवासौ तत्परिणाम इति । क्षायोपशमनिष्पन्नश्चायम् , तमन्तरेणाभावात् न ादीणक्षयादनुवीर्णोपशमव्यतिरेकेणास्य भावः । क्रोधादिपरिणामः पुनरुपधानसामर्थ्यापादितस्फटिकमणिरक्ततावदसहज इति । आह-यदि परिणामः सम्यक्त्वं ततो मिश्रीमावपरिणतं वेद्यमानं क्षायोपशमिकमित्येतद्विरुध्यते मोहनीयभेदयोरेव मिश्रीभावपंरिणतयोर्वेद्यमानत्वात् ? न विरुध्यते, तथाविधपरिणामहेतुत्वेन तयोरेव सम्यक्त्वोपचारात् । कृतं विस्तरेणेति ॥४४॥ क्षायोपशमिकानन्तरमौपशमिकमाह
उवसमगंसेढिगयस्स होइ उक्सामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥४॥
मिश्र अवस्थासे परिणत-क्षय व उपशम स्वभावको प्राप्त-एवं वेद्यमान-प्रदेशानुभवसे अनुभूयमान सम्यक्त्वको क्षय और उपशमसे निवृत्त होनेके कारण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा गया है। यहां फिर यह शंका होती है कि मोहनीयका उदयभेद होनेके कारण उस सम्यक्त्वको औदयिक भावके अन्तर्गत होना चाहिए, तब ऐसी अवस्थामें उसे क्षायोपशमिक कहना असंगत है। इसके उत्तर में कहा गया है कि सम्यक्त्व ज्ञानके समान आत्माका परिणाम है, वह कुछ क्रोधादिके समान कर्मपरमाणुओंके सम्पर्कसे नहीं उत्पन्न होता है। इसीलिए उसे औदयिक नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार सघन काले मेघसमूहके हट जानेपर कूछ स्वच्छ मेघोंके रहते हए भी सूर्यका कुछ स्वाभाविक प्रकाश फैला रहता है उसी प्रकार मिथ्यात्वके हट जानेपर सम्यक्त्वपरमाणुओंका अनुभव होनेपर भी वह सम्यक्त्वरूप आत्माका स्वाभाविक परिणाम क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, उदीर्णके क्षय और अनुदीर्णके उपशमरूप क्षयोपशमके बिना उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। इससे भिन्न कर्मरूप उपाधिके सामर्थ्यसे उत्पन्न होनेवाले क्रोध आदि परिणाम स्वाभाविक नहीं हैं, किन्तु जपाकुसुम आदि उपाधिके आश्रयसे उत्पन्न होनेवाली स्फटिक मणिको लालिमाके समान वे अस्वाभाविक हैं। यहाँ फिर यह शंका होती है कि यदि सम्यक्त्व आत्माका परिणाम है तो उसे क्षायोपशमिक कहना असंगत है, क्योंकि मिश्रीभावपरिणत उक्त दोनों मोहनीयके भेद ही तो उसमें वेद्यमान हैं । इसके समाधानमें कहा गया है कि उस प्रकारके आत्मपरिणामके हेतु होनेसे उन दोनोंको ही उपचारसे सम्यक्त्व कहा गया है, अतः उसमें कुछ विरोध नहीं है ।।४३.४४।।
__ अब औपशमिक सम्यक्त्वका निरूपण करते हुए वह किसके होता है, यह आगेकी गाथामें दिखलाते हैं
जो उपशम श्रेणिपर आरूढ़ है उसके औपशमिक सम्यक्त्व होता है, अथवा जिसने मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और उभय ( सम्यमिथ्यात्व ) रूपसे तीन पुंज नहीं किये हैं या मिथ्यात्वका क्षय नहीं किया है वह ओपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥४५।।
१. अ ताविधि मिथ्यात्वघटनपटले । २. अ सामग ।