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श्रावकप्रज्ञप्तिः
सांप्रतं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमभिधित्सुराह
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मिच्छत्तं जमुदिन्नं तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । मसभा परिणयं वेयिज्जंतं खओवसमं ॥ ४४ ॥
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[ ४४ -
मिथ्यात्वं नाम मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म तत् । यदुदीर्णं यदुद्भूतशक्ति, उदयावलिकायां व्यवस्थितमित्यर्थः । तत्क्षीणं प्रलयमुपगतम् । अनुदितं च अनुदीर्णं चोपशान्तम् । उपशान्तं नाम विष्कम्भतोदयमपनीत मिथ्यात्वस्वभावं च, विष्कम्भितोदयं शेष मिथ्यात्वमपनीत मिथ्यात्वस्वभावं मदनकोद्रवोदाहरण त्रिपुजिन्यायशोधितं सम्यक्त्वमेव । आह-इह विष्कम्भितोदयस्य मिथ्यात्व - स्यानुदीर्णता युक्ता, न पुनः सम्यक्त्वस्य, विपाकेन वेदनात् । उच्यते - सत्यमेतत्, कि त्वपनीतमिथ्यात्वस्वभावत्वात्स्वरूपेणानुदयात्तस्याप्यनुदीर्णोपचार इति । यद्वानुदीर्णत्वं मिथ्यात्वस्यैव युज्यते, सम्यक्त्वस्य । कथम् ? मिथ्यात्वं यदुदीर्णं तत् क्षीणम् । अनुदीर्णमुपशान्तं चेति च शब्दस्य
आगे गाथा में निर्दिष्ट सम्यक्त्वके उन तीन भेदोंमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्वके स्वरूपका निर्देश किया जाता है
जो मिथ्यात्व मोहनीय उदयको प्राप्त है वह क्षीण हो चुका और जो उदयको प्राप्त नहीं है व उपशान्त है, इस प्रकार मिश्रभाव - क्षय व उपशमरूप उभय अवस्था - में परिणत होकर अनुभव में भी जो आ रहा है उसका नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है ।
विवेचन - जो सम्यक्त्व अपने रोधक मिथ्यात्वके क्षयोपशमसे प्रादुर्भूत होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । गाथामें उस मिथ्यात्वके क्षयोपशमके स्वरूपको प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो मिथ्यात्व उदयावली में प्रविष्ट है वह क्षयको प्राप्त हो चुका और अनुदित हैउदयावली में प्रविष्ट नहीं है वह उपशान्त है । उपशान्तका अर्थ है उदयका निरोध व उसके मिथ्यात्व स्वभाव – सम्यक्त्वके प्रतिबन्धक स्वरूप -का हट जाना । जिस प्रकार चक्की में दलने से कोदों (एक तुच्छ धान्य ) के तीन भाग हो जाते हैं- भूसा, कण और चूरा; उसी प्रकार परिणाम - विशेषसे उस मिथ्यात्व के तीन भाग हो जाते हैं- मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिश्र ( सम्यग् - मिथ्यात्व ) । इनमें जो मिथ्यात्व स्वभावको छोड़कर शुद्धिको प्राप्त होता हुआ प्रदेशरूपसे उदयको - प्राप्त है वह सम्यक्त्व ही है । अभिप्राय यह है कि उदय प्राप्त मिथ्यात्व के क्षय, उदयमें नहीं प्राप्त हुए उसीके उपशम तथा मिथ्यात्व स्वभावसे रहित होकर प्रदेशोदयके रूपमें वर्तमान उसके उदय; इस प्रकारकी उस मिथ्यात्वकी अवस्थाका नाम क्षयोपशम है । इस क्षयोपशमके आश्रयसे होनेवाले सम्यक्त्वको क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि जिस मिथ्यात्वका उदय रुका हुआ है उसे तो अनुदीर्णं कहना संगत है, किन्तु जो सम्यक्त्व विपाकरूपसे अनुभव में आ रहा है उसे अनुदोर्ण कैसे कहा जा सकता है ? इसके समाधान में कहा गया है कि यह ठीक हैं, परन्तु उसे जो अनुदोर्ण कहा गया है वह मिध्यात्व स्वभावसे रहित होकर अपने स्वरूपसे उदयमें न आनेके कारण उपचारसे कहा गया है। वस्तुतः अनुदीर्ण तो मिथ्यात्वको ही कहना चाहिए, न कि सम्यक्त्वको । इस अभिप्रायके अनुसार गाथाको संगतिको बैठाते हुए टीका में कहा गया है कि जो मिथ्यात्व उदीर्ण है वह क्षयको प्राप्त है और जो उदयको प्राप्त नहीं है वह उपशान्त है, इस प्रकार अनुदीर्ण एवं उपशान्त मिथ्यात्वको सम्यक्त्व कहा गया है। तदनुसार
१. अ अणुदीयं । २. अ मीसभाव । ३. अ वेयज्जंतं । ४ अ 'न तु' अतोऽग्रे 'मिथ्यात्वमुपशान्तं च ' पर्यन्तः पाठो नोपलभ्यते ।