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जिनवचनश्रवणमाहात्म्य
ऽनुरागो भवतीत्यत्राह-श्रवणादिगोचरः श्रवण-श्रद्धानानुष्ठानविषय इत्यर्थः । तथा तेन प्रकारेण । कस्येत्यत्राह-सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य, प्रक्रान्तत्वाच्छावकस्येत्यर्थः। अतोऽसौ श्रवणे प्रवर्तत एव । ततश्च शृणोतीति श्रावक इति युक्तम्, इति गाथाभिप्रायः ॥५॥ निरूपितः श्रावकशब्दार्थः । सांप्रत द्वादशविधं श्रावकधर्ममुपन्यस्यन्नाह
पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं च हुंति तिन्नेव ।
सिक्खावयाई चउरो सावगधम्मो दुवालसहा ॥६॥ पञ्चेति सङ्ख्या। एवकारोऽवधारणे-पञ्चैव, न चत्वारि षड्वा । अणूनि च सानि व्रतानि चाणुनतानि, महावतापेक्षया चाणुत्वमिति, स्थूलप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपाणीत्यर्थः। गुणव्रतानि च भवन्ति त्रीण्येव, न न्यूनाधिकानि वा । अणुव्रतानामेवोत्तरगुणभूतानि व्रतानि दिग्वत-भोगोपभोगपरिमाणकरणानर्थदण्डविरतिलक्षणानि, एतानि च भवन्ति त्रीण्येव । शिक्षापदानि च शिक्षावतानि वा--तत्र शिक्षा अभ्यासः, स च चारित्रनिबन्धनविशिष्ट क्रियाकलापविषयस्तस्य पदानि स्थानानि, तद्विषयाणि वा व्रतानि शिक्षाप्रतानि । एतानि च बत्वारि सामायिक-देशावकाशिक-प्रोषधोपवासातिथिसंविभागाख्यानि । एवं श्रावकधर्मो द्वादशमा द्वादशप्रकार इति गाथासमासार्थः । अवयवाथं तु महता प्रपञ्चेन ग्रन्थकार एव वक्ष्यति ॥६॥ तथा बाहप्रकारान्तरसे यह दिखलाते हैं कि सभ्यग्दृष्टि जीवका अनुराग उस जिनवाणीके सुनने, श्रद्धान करने और तदनुसार आचरण करने में स्वयमेव हुआ करता है । इसीसे वह उसके सुनने में संवेगादि गुणोंकी अपेक्षा न करके भी स्वयं प्रवृत्त होता है। इसलिए जो जिनवाणीको सुनता है वह श्रावक कहलाता है, यह जो श्रावकका लक्षण कहा गया था उसे सार्थक ही समझना चाहिए। यहां यह स्मरणीय है कि श्रावक सम्यग्दृष्टि ही होता है, बिना सम्यग्दर्शनके यथार्थतः कोई श्रावक नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टि जीवके वैसा धर्मानुराग सम्भव नहीं है ।।५।।
इस प्रकार श्रावकके लक्षणको दिखलाकर अब उसके बारह प्रकारके धर्मका निर्देश किया जाता है
पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकारसे वह श्रावक धर्म बारह प्रकारका है।
विवेचन-स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म (मैथुन) और परिग्रह इसके परित्यागका नाम अणुव्रत है। ये अणुव्रत पांच ही होते हैं, हीनाधिक नहीं होते, यह गाथामें 'पंच' शब्दके साथ उपयुक्त 'एव' पदके द्वारा सूचित कर दिया गया है । 'अणुव्रत'में जो 'अणु' विशेषण है वह महाव्रतोंकी अपेक्षा इन व्रतोंकी अणुताको सूचित करता है। कारण यह कि श्रावकके ये व्रत मुनिके महाव्रतोंकी अपेक्षा अल्प मात्रामें ही हुआ करते हैं। वह मुनिके समान उक्त हिंसादि पापोंका पूर्ण रूपसे त्याग नहीं कर सकता, किन्तु स्थूल रूप में ही वह उनका त्याग कर सकता है । इन अणुव्रतोंके उत्तर गुणस्वरूप व्रतोंका नाम गणव्रत है। वे दिग्व्रत, भोगोपभोगपरिमाणकरण और अनथदण्ड विरतिके भेदसे तीन ही हैं। 'शिक्षा' का अर्थ अभ्यास और 'पद' का अर्थ स्थान होता है। तदनुसार जो व्रत चारित्रसे सम्बद्ध विशिष्ट क्रियाकलापविषयक शिक्षाके स्थान होते हैं या उसको विषय करते उन्हें शिक्षापद या शिक्षाव्रत कहा जाता है । वे चार हैं-सामायिक, देशावकाशिक,
१. अहोति । २. अ अतोऽग्रेऽग्रिम शिक्षावतानि'पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति ।