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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः एयस्स मूलवत्थू सम्मत्तं तं च गंठिभेयम्मि । खयवसमाइ तिविहं सुहायपरिणामरूवं तु ||७|| एतस्यानन्तरोपन्यस्तस्यं श्रावकधर्मस्य । मूलवस्तु सम्यक्त्वम् - वसन्त्यस्मिन्नणुव्रतादयो गुणास्तद्भावभावित्वेनेति वस्तु, मूलभूतं च तद्वस्तु च मूलवस्तु । किं तत् ? सम्यक्त्वम् । उक्तं चमूलं द्वारं प्रतिष्ठानमाधारो भाजनं निधिः । [ ७ द्विषट्कस्यास्य धर्मस्य सम्यक्त्वं परिकीर्तितम् ॥ १ ॥ तच्च सम्यक्त्वं ग्रन्थिभेदे वक्ष्यमाणलक्षणक मंग्रन्थिभेवे सति भवति, नान्यथेति भावः । तच्च क्षायोपशमिका दिभेदात् त्रिविधम् - क्षायोपशमिकमौपशमिकं क्षायिकं च यद्वा कारकादि । शुभात्मपरिणामरूपं तु - शुभः संक्लेशर्वाजित आत्मपरिणामो जीवधर्मो रूपं यस्य तच्छुभात्मपरिणामरूपम् । तुरवधारणे - शुभात्मपरिणामरूपमेव । अनेन तद्वद्यतिरिक्तलिङ्गाविधर्मardच्छेदमाह, व्यतिरिक्तधर्मत्वे तत उपकारांयोगादिति ॥७॥ जं जीवकम्मजोए जुज्जइ एयं अओ तयं पुबि । वोच्छं तओ कमेणं पच्छा तिविहं पि सम्मत्तं ||८|| प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग । इस प्रकारसे श्रावक धर्मं बारह ( ५+३+४) प्रकारका है ||६|| अब उस श्रावक धर्मका आधार सम्यग्दर्शन है, इसे दिखलाते हैं इस बारह भेदरूप श्रावक धर्मकी मूल वस्तु सम्यक्त्व है । वह ग्रन्थिके—कर्मरूप गांठ— भेदे जानेपर सम्भव है । शुभ आत्मपरिणामस्वरूप वह सम्यक्त्व क्षायोपशमादिके भेदसे तीन प्रकारका है । विवेचन - यहां सम्यक्त्रको उपर्युक्त श्रावक धर्मंकी मूल वस्तु कहा गया है । 'वसन्ति अस्मिन् अणुव्रतादयो गुणा इति वस्तु' इस निरुक्तिके अनुसार जिसके होनेपर अणुव्रत आदि रूप गुण निवास करते हैं उसे वस्तु कहा जाता है। तदनुसार जब उस सम्यक्त्व के होनेपर उसके आश्रयसे हो वे अणुव्रत आदि गुण रहते हैं और उसके बिना नहीं होते तब वैसी अवस्था में उक्त सम्यक्त्व को श्रावक धर्मकी मूल वस्तु कहना संगत ही है । अभिप्राय यह है कि आत्माके शुभ परिणामस्वरूप वह सम्यक्त्व जब प्रकट हो जाता है तब कहीं अणुव्रतादिरूप वह श्रावक धर्म हो सकता है, उसके बिना उसका होना सम्भव नहीं है । जीव-अजोवादिरूप तत्त्वार्थों के श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है । वह अपूर्वकरण परिणामके द्वारा कर्मरूप गाँठके भेदे जानेपर ही प्रादुर्भूत होता है, उसके बिना उसका होना सम्भव नहीं है । वह तीन प्रकारका है - क्षायोपशमिक, ओपशमिक और क्षायिक | अथवा प्रकारान्तरसे उसके ये अन्य तीन भेद भी निर्दिष्ट किये गये हैं- कारक, रोचक और व्यंजक | आगे इन सम्यक्त्व भेदोंका कथन ग्रन्थकार स्वयं करनेवाले हैं (४३-५० ) । प्रकृतमें जो उस सम्यक्त्व - को निर्मल आत्मस्वरूप बतलाया गया है उससे आत्मपरिणति से भिन्न बाह्य लिंग (वेष ) आदिका निषेध कर दिया गया है । कारण यह है कि बाह्य लिंगादिस्वरूप मान लेनेपर उसके द्वारा आत्माका उपकार सम्भव नहीं है ||७|| वह सम्यक्त्व चूँकि जीव और कर्मका सम्बन्ध होनेपर ही घटित होता है, अतः पहले यहाँ उस जीव और कर्मके सम्बन्धके कथनकी प्रतिज्ञा १. अ धर्म्मलिंगव्यवं । २. अ जुज्जए एयं अउ तयं पुव्धं । ३. अतउ ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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