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श्रावकप्रज्ञप्तिः ..
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नापि तत्करोति देहो न च स्वजनो न च वित्तसंघातः जिनवचनश्रवणजनिता यत्संवेगावयो लोके कुर्वन्ति । तथाहि-अशाश्वतः प्रतिक्षणभङ्गरो देहः, शोकायासकारणम्, क्षणिकसंगमश्च स्वजनः, अनिष्टितायासव्यवसायास्पदं च वित्तसंघात इत्यसारता। तीर्थकरभाषिताकर्णनोद्भवाश्व संवेगादयो जाति-जरा-मरण-रोग-शोकायुपद्रवतातरहितापवर्गहेतव इति सारता। अतः श्रोतव्यं जिनवचनमिति ॥४॥ अथवा
होइ दढं अणुराओ जिणवयणे परमनिव्वुइकरम्मि ।
सवणाइगोयरो तह सम्मदिहिस्स जीवस्स ॥५॥ यद्वा किमनेन ? निसर्गत एव भवति जायते । दृढमत्यर्थमनुरागः प्रीतिविशेषः। का? जिनवचने तीर्थकरभाषिते । किविशिष्टे ? परमनिर्वृतिकरे उत्कृष्टसमाधिकरणशीले। किंगोचरो
विवेचन-शरीर स्वभावतः अपवित्र, रोगोंका स्थान व विनश्वर है। कुटुम्बी जनका संयोग भी सदा रहनेवाला नहीं है। जिस प्रकार पक्षी इधर-उधरसे आकर रात्रिमें किसी एक ही वृक्षके ऊार निवास करते हैं और सवेरा हो जानेपर वे अपने-अपने कार्यके वश विभिन्न दिशाओं में चले जाते हैं उसी प्रकार माता-पिता, स्त्री व पुत्र आदि अपने-अपने कर्मके अनुपार कुछ समयके लिए एक कुटुम्बके रूप में एकत्र अवस्थित रहते हैं तथा आयुके पूर्ण हो जानेपर वे यथासमय विभिन्न पर्यायोंको प्राप्त होकर विभक्त हो जाते हैं ( इष्टोपदेश ८-९ )। इसके अतिरिक्त जबतक परस्परमें एक दूसरेका स्वार्थ सधता है तबतक तो उनमें स्नेह बना रहता है, किन्तु स्वार्थके विघटित होनेपर उन्होंमें परस्पर शत्रुताका भाव भी उदित हो जाता है। इस प्रकारसे वे संद श्री कारण बन जाते हैं। धन भी वस्तुतः सुखका कारण नहीं है। प्रथम तो उस धनके उपार्जनमें अतिशय परिश्रम करना पड़ता है, इसके अतिरिक्त उसके उपार्जनमें न्याय-अन्यायका भी विवेक नहीं रहता। तत्पश्चात् संचित हो जाने पर उसके संरक्षणको चिन्ता व्यथित करती है। फिर रक्षाका प्रयत्न करनेपर भी यदि वह चोर आदिके द्वारा अपहृत कर लिया जाता है तो अतिशय कष्टका कारण बन जाता है। (क्षत्रचूडामणि २-६७ ) इसके अतिरिक्त जब परस्परमें उसके विभाजनका समय उपस्थित होता है तब वही पिता-पुत्र व भाई-भाईमें प्रबल वैरभावका भी कारण बन जाता है। इस प्रकार यथार्थताका विचार करनेपर उपर्युक्त शरीर, कौटुम्बिक जन और धन आदि चूंकि स्पष्टतः दुखके कारण हैं, अतएव वे असार ही हैं। इसके विपरीत जिनवाणोके श्रवणसे जो संवेग आदि प्रादुर्भूत होते हैं जन्म, जरा, मरण एवं रोग-शोकादिको दूर कर चूंकि शाश्वतिक व निर्बाध मुक्तिसुखक कारण होते हैं, इसलिए वे ही वस्तुतः सारभूत हैं। यही कारण है जो यहाँ उन सारभूत संवेगादिकी प्राप्तिके लिए जिन वचनके श्रवणकी प्रेरणा की गयी है ।।४।। अथवा
सम्यग्दृष्टि जीवके उत्कृष्ट सुखको कारणभूत जिनवाणीके सुनने आदि विषयक दृढ़ अनुराग स्वयं होता है।
विवेचन -पीछे गा. २ में 'श्रावक' शब्दकी निरुक्तिपूर्वक यह बतलाया था कि जो यति जनसे धर्मको सुना करता है उसका नाम श्रावक है। तत्पश्चात् आगे गा. ३ में उस जिनवाणीके सुननेसे उत्पन्न होनेवाले गुणोंका निर्देश करते हुए यह कहा गया था कि जिनवाणीके सुननेसे चूंकि संवेग आदि गुण प्रकट होते हैं, इसीलिए श्रावक उसके सुनने में प्रवृत्त होता है। अब यहाँ
१. अंतासद्वयव ।