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श्रावकस्वरूपम् षिद्गौरादिम्यश्चेति टाप् यस्येत्यकारलोपः, यस्य हल इत्यनेन तद्धित-यकारलोपः, परगमनं सामाचारी, तां सामाचारीम् । परमां प्रधानाम्, साधु-श्रावकसंबद्धामित्यर्थः। यः खलु य एव शृणोति । तं श्रावकं ब्रवते तं श्रावकं प्रतिपादयन्ति भगवन्तस्तीथंकरगणधराः। ततश्चार्य पिण्डार्थः-अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्साधूनामगारिणां च सामाचारों शृणोतीति श्रावकः इति ॥२॥ सांप्रतं श्रवणगुणान् प्रतिपादयति
नवनवसंवेगो खलु नाणावरणखओवसमभावो।
तत्ताहिगमो य तहा जिणवयणायन्नणस्स गुणा ॥३॥ नवनवसंवेगः प्रत्यग्रः प्रत्यग्नः संवेगः आन्तिःकरणता। मोक्षसुखाभिलाष इत्यन्ये । खलुशन्वः पूरणार्थः, संवेगस्य शेषगुणनिबन्धनत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थो वा । तथा ज्ञानावरणक्षयोपशमभावः ज्ञानावरणक्षयोपशमसत्ता संवेगादेव । तत्त्वाधिगमश्च तत्त्वातत्त्वपरिच्छेदश्च । तथा जिनवचनाकर्णनस्य तीर्थकरभाषितश्रवणस्यैते गुणा इति । तीर्थकरभाषिता चासौ सामाचारोति ॥३॥
किं च देह-स्वजन-वित्तप्रतिबद्धः कश्चिदहृदयो न शृणोतीत्येषामसारताख्यापनाय जिनवचनश्रवणस्य सारतामुपदर्शयन्नाह
न वि तं करेइ देहो न य सयणो नेय वित्तसंघाओ। जिणवयणसवणजणिया जं संवेगाइया लोए ॥४॥
और श्रावकसे सम्बद्ध होता है उसका नाम सामाचारो है । अभिप्राय यह है कि जिसने सम्यग्दर्शनके साथ अणुव्रत आदिको स्वीकार कर लिया है तथा जो प्रतिदिन साधु जनसे मुनि व श्रावकके आचारको सुनता है उसे श्रावक समझना चाहिए ॥२॥ .
अब जिनागमके सुननेसे प्राप्त होनेवाले गुणोंका निर्देश किया जाता है
नवीन-नवीन संवेग, ज्ञानावरणका क्षयोपशम और तत्त्वका परिज्ञान ये जिनवचनके सुननेके गुण हैं।
विवेचन-यहां जिन देवके द्वारा उपदिष्ट उस सामाचारीके सुननेसे क्या लाभ होता है, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि उत्तरोत्तर आविर्भूत होनेवाली हृदयकी निर्मलताके साथ नवीन नवीन संवेगका प्रादुर्भाव होता है। अन्तःकरणकी आर्द्रता-निर्मल परिणतिका नाम संवेग है । अन्य आचार्यों के अभिमतानुसार मोक्षसुख की जो अभिलाषा हुआ करती है उसे संवेग कहा जाता है। इस संवेगके साथ उक्त जिनवाणोके सुननेसे ज्ञानके आवारक ज्ञानावरण कर्मका विशिष्ट क्षयोपशम भी होता है, जिससे श्रोताको तत्त्व-अतत्त्वका विवेक भी प्रादुर्भूत होता है। यह उस जिनवाणीके सुननेका महान् लाभ है ॥३॥
निःसार शरीर आदिकी अपेक्षा जिनवचन श्रवणकी श्रेष्ठता
लोकमें जिनवाणीके सुननेसे प्रादुर्भूत संवेग आदि जिस शाश्वतिक सुखको उत्सन्न करते हैं उसे न तो शरीर उत्पन्न कर सकता है, न कुटुम्बी जन उत्पन्न कर सकते हैं, और न धन-सम्पत्तिका समुदाय भी उत्पन्न कर सकता है। १. मति डोप् (टाप् ) यस्य । २. अ 'प्रधानाम्' नास्ति। ३. अ व्रतेपि । ४. हि। ५. म गुणनवनवत्वेन ।