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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[१___ अवयवाथस्तु अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीत्यहन्तस्तीर्थकरास्तानहतः। वन्दित्वा अभिवन्ध। श्रावका वक्ष्यमाणशब्दार्थाः, तेषां धर्मस्तम। किंभूतम? द्वादश विधाः प्रकारा अस्येति द्वादशविधस्तं द्वादशविधमपि संपूर्ण नाणुव्रतायेकदेशप्रतिबद्धमिति । वक्ष्येऽभिधास्ये । ततश्च यथोदितश्रावकधर्माभिधानमेव प्रयोजनम् । स एवाभिधीयमानोऽभिधेयम् । साध्य-साधनलक्षणश्च संबन्धः। तत्र साध्यः प्रकरणार्थः, साधनमिदमेव वचनरूपापन्नमिति ॥ आह-यद्येवं नार्थोऽनेन, पूर्वाचार्यैरेव यथोदितश्रावकधर्मस्य ग्रन्थान्तरेष्वभिहितत्वात् । उच्यतेसत्यमभिहितः प्रपञ्चेन, इह तु संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहार्थ समासेण संक्षेपेणं वक्ष्ये। किं स्वमनीषि कया ? नेत्याह-गुरूपदेशानुसारेण-गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुस्तस्मादुपदेशो गुरूपदेशस्तदनुसारेण तन्नोत्येत्यर्थः॥१॥ श्रावकधर्मस्य प्रकान्तत्वात्तस्य श्रावकानुष्ठातृकत्वाच्छावकशब्दार्थमेव प्रतिपादयति
संपत्तदंसणाई पइदियहं जइजणा सुणेई य ।
सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बिन्ति' ॥२॥ संप्राप्तं दर्शनादि येनासौ संप्राप्तदर्शनादिः। दर्शनग्रहणात्सम्यग्दृष्टिरादिशब्दादणुव्रतादिपरिग्रहः । अनेन मिथ्यादृष्टेव्यु दासः। स इत्थंभूतः। प्रतिदिवसं प्रत्यहम्। यतिजनात्साधुलोकात् । शृणोतीति शृणोत्ये । किम् ? सामाचारों परमाम् । तत्र समाचरणं समाचारः शिष्टाचरितः क्रियाकलापः, तस्य भावो गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि व्यञ् सामाचार्यम्, पुनः स्त्रीविवक्षायां उपस्थित न हों, इस उद्देश्यसे ग्रन्थकर्ताने प्रथमतः अरहन्तोंको नमस्कार किया है। जो अशोकवृक्ष आदि आठ प्रातिहार्यादि स्वरूप पूजाके योग्य होते हैं वे अरहन्त कहलाते हैं। यह 'अरहन्त' का निरुक्तार्थ है । इस प्रकार मंगलके करनेसे पूर्वोक्त शिष्ट जनको उस पद्धतिका परिपालन हो जाता है। ग्रन्थ रचनाका प्रयोजन श्रावक धर्मको प्ररूपणा है, इसकी सूचना भी प्रकृत मंगल गाथामें कर दी गयी है। साथ ही इस गाथामें जो 'गुरूपएसाणुसारेण' यह निर्देश किया गया है उससे ग्रन्थकारने अपनी प्रामाणिकताको प्रकट करते हुए यह भी सूचना कर दी है कि मैं जो इसमें श्रावकधर्मका व्याख्यान कर रहा हूँ वह गुरु परम्परासे प्राप्त ही उस श्रावकधर्मका व्याख्यान कर रहा हूँ, न कि अपनी कल्पनासे । इस श्रावकधर्म के प्ररूपक अन्य ग्रन्थ भी यद्यपि ग्रन्थकारके समक्ष .विद्यमान थे, पर उनसे संक्षेपमें रुचि रखनेवाले शिष्योंको लाभ नहीं हो सकता था, इससे ग्रन्थकारने संक्षेपमें इस ग्रन्थके रचनेका उपक्रम किया है ॥१॥
आगे 'श्रावक' शब्दके अर्थका प्रतिपादन करते हैं
जो सभ्यग्दर्शन आदिको प्राप्त करके प्रतिदिन मुनि जनसे उत्कृष्ट सामाचारीको सुनता है उसे श्रावक कहते हैं!
विवेचन-गाथामें जो 'सपत्तदंसणाई' ऐसा कहा है उससे यह अभिप्राय प्रकट कर दिया है कि प्रकृत श्रावक धर्मके अनुष्ठानका अधिकारी सम्यग्दृष्टि श्रावक ही होता है, मिथ्यादृष्टि उसके अनुष्ठानका अधिकारी नहीं है । 'दर्शन' के साथ जो 'आदि' शब्दको ग्रहण किया गया है उससे अणुव्रत आदिका ग्रहण भी अभीष्ट रहा है। शिष्ट जनके द्वारा आचरित जो क्रियाकलाप साधु
१. अ बेंति । २. म त् शृणोत्येव ।