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श्रावकप्रज्ञप्तिः
आचार्य वीरसेन द्वारा षट्खण्डागम की टीका धवला (पु. १. पृ. १५३ ) में उद्धृत किया गया है। यह गो. जीवकाण्ड (६६५) और प्रवचनसारोद्धार ( १३१९) में भी उसी रूप में उपलब्ध होती है।
(११) श्रावकप्रज्ञप्ति और प्रत्याख्याननियुक्ति
आचार्य भद्रबाहु द्वितीय (छठी शताब्दी) नियुक्तिकार के रूप से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रुत, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र, सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित इन ग्रन्थों की निर्युक्ति करने की प्रतिज्ञा की है ।' प्रकृत में आवश्यकसूत्र के छठे अध्ययनस्वरूप प्रत्याख्यान आवश्यक की नियुक्ति अपेक्षित है । श्रा. प्र. गा. ३३४ में शंकाकार ने गृहस्थ के लिए अनुमति का निषेध है, इसे नियुक्ति के आधार से पुष्ट किया है। उसकी टीका में हरिभद्र सूरि ने 'निर्युक्ति' से प्रत्याख्याननिर्युक्ति अपेक्षित है, यह स्पष्ट कर दिया है। जहाँ तक मेरा अपना विचार है, प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति, की रचना का प्रमुख आधार आवश्यकनिर्युक्ति और आवश्यकचूर्णि रही है । दशवैकालिक चूर्णि (पृ. २११ ) में भी कहा गया है कि इस बारह प्रकार के श्रावकधर्म का व्याख्यान प्रत्याख्याननियुक्ति के समान करना चाहिए - एतस्स बारसविहस्स सावगधम्मस्स वक्खाणं जहा पच्चक्खाणणिज्जुत्तीए । सम्यक्त्व के शंका आदि अतिचारों के स्पष्टीकरण में श्रा. प्र. की टीका में जो कथाएँ दी गयी हैं वे प्रायः ज्यों की त्यों आवश्यकचूर्णि (पृ. २७९-२८१) में पायी जाती हैं। इसी प्रकार टीका में जहाँ-तहाँ जो पूर्वोक्ताचार्योक्तविधि, वृद्धसम्प्रदाय और सामाचारी आदि के उल्लेखपूर्वक विवक्षित विषय का स्पष्टीकरण किया गया है वह भी सम्भवतः आवश्यकचूर्णि के अनुसार किया गया है । हरिभद्र सूरि ने दशवैकालिक नियुक्ति १८६ (पृ. १०२ ) की अपनी टीका में शंका- कांक्षा आदि सम्यक्त्व के अतिचारों को स्पष्ट करते हुए 'उदाहरणं चात्र पेयापेयकौ यथावश्यके' ऐसी सूचना करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि इनका विवेचन जैसा आवश्यकसूत्र में किया गया है वैसा ही प्रकृत में समझना चाहिए। ये उदाहरण वे ही हैं जो श्रा. प्र. गा. ९१ और ९३ की टीका में दिये गये हैं।
(१२) श्रावकप्रज्ञप्ति और निसी चूर्णि
श्री. प्र. की टीका के अन्तर्गत सम्यक्त्वातिचारों से सम्बद्ध जो कथाएँ आवश्यकचूर्णि में उपलब्ध होती हैं वे लगभग उसी रूप में निसीथचूर्णि (१, पृ. १५ आदि) और पंचाशकचूर्णि (पृ. ४४ ) में भी उपलब्ध होती हैं । श्रा. प्र. की 'संसयकरणं संका' आदि गाथा (८७) प्रकृत निसीथचूर्णि (१-२४ ) में भाष्यगाथा के रूप में उपलब्ध होती है ।
(१३) श्रावकप्रज्ञप्ति और विशेषावश्यकभाष्य
विशेषावश्यकभाष्य यह जिनभद्रक्षमाश्रमण ( ७वीं शती) विरचित एक महत्त्वपूर्ण विशाल ग्रन्थ है । वह आवश्यकसूत्र के अन्तर्गत प्रथम सामायिक अध्ययन मात्र पर लिखा गया है। उसमें आ. भद्रबाहु विरचित नियुक्तियों की विस्तार से व्याख्या की गयी है। इसमें प्रसंगानुसार आगम के अन्तर्गत अनेक विषयों का समावेश हुआ है।
प्रस्तुत श्रा. प्र. में यथाप्रसंग चर्चित कितने ही विषय इस भाष्य से प्रभावित हैं तथा उसकी कुछ गाथाएँ भी इसमें उसी रूप में अथवा कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ पायी जाती हैं। यथा
१. देखिए मलयगिरि विरचित वृत्ति सहित आवश्यकसूत्र, प. १००, गा. ८३-८६ ।