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________________ प्रस्तावना की साधु से भिन्नता प्रकट की गयी है (२९२-३११) । आगे यहाँ सामायिक के अतिचारस्वरूप मनोदुष्प्रणिधान आदि को भी पृथक्-पृथक् स्पष्ट किया गया है (३१२-३१७) । ६. उ. द. में जिन अपध्यानादि चार अनर्थदण्डों का परित्याग इच्छापरिमाणव्रत (४३) के प्रसंग में कराया गया है उनका परित्याग श्री. प्र. (२८९) में अनर्थदण्डविरति के अन्तर्गत कराया गया । यह विधान इच्छापरिमाण की अपेक्षा अनर्थदण्डविरति से अधिक संगत प्रतीत होता है । ७. श्रा. प्र. में पौषध के प्रसंग जिन आहारपौषधादि चार भेदों का उल्लेख किया गया है ( ३२१-३२२) उनका निर्देश उ. द. (५५) में नहीं किया गया । ८. उ. द. (५६) में चतुर्थ शिक्षापद का उल्लेख अथासंविभाग के नाम से किया गया है जब कि श्रा. प्र. (३२५-३२६) में उसके नाम का कहीं कोई निर्देश नहीं किया गया, यहाँ उसका उल्लेख अन्तिम शिक्षापद के रूप में किया गया है। टीका में अवश्य उसका निर्देश अतिथिसंविभाग के नाम से किया गया है ( गा. 6 की उत्थानिका व गा. ३२६ ) । २५ ९. श्री. प्र. में पूर्वोक्त 12 व्रतों के पश्चात् श्रावक के निवास, दिनचर्या, चैत्यवन्दन, प्रत्याख्यानग्रहण, चैत्यपूजा और विहारविषयक सामाचारी का निरूपण करते हुए अन्य अभिग्रह और प्रतिमा आदि को भी अनुष्ठेय कहा गया है। (८) श्रावकप्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना श्यामार्य वाचक विरचित इस प्रज्ञापना (पन्नवणा) सूत्र को चौथा उपांग माना जाता है। वह प्रज्ञापना आदि ३६ पदों में विभक्त है । श्रा. प्र. की ५२ वीं गाथा में यह कहा गया है कि 'समय' में सम्यक्त्व के अन्य जिन दस भेदों का निरूपण किया गया है वे प्रकृत क्षायोपशमिकादि भेदों से भिन्न नहीं हैं - उनके ही अन्तर्गत हैं। 'समय' शब्द से यहाँ सम्भवतः प्रकृत प्रज्ञापनासूत्र का अभिप्राय रहा है। वहाँ ११५-१३० गाथसूत्रों में सम्यक्त्व के उन इस भेदों का निरूपण किया गया है।' श्रा. प्र. की इस गाथा की टीका में हरिभद्रसूरि ने 'यथोक्तं प्रज्ञापनायाम्' ऐसा निर्देश करते हुए उन दस भेदों के सूचक प्रज्ञापनागत 'निसग्गुवएसरुई' आदि गाथासूत्र को उद्धृत भी कर दिया है। (९) श्रावकप्रज्ञप्ति और उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन- यह मूलसूत्रों में प्रथम माना जाता है । ३६ अध्ययनों में विभक्त यह किसी एक की रचना नहीं है। महावीर निर्वाण से लेकर हजार वर्षों के भीतर विभिन्न स्थविरों के द्वारा उसके उन अध्ययनों का संकलन किया गया दिखता है। इसके २८वें अध्ययन में भी सम्यक्त्व के उन दस भेदों की प्ररूपणा की गयी है ( २८, १६-३१) जो शब्दशः उपर्युक्त प्रज्ञापना के ही समान है । (१०) श्रावकप्रज्ञप्ति और जीवसमास जीवसमास - यह एक प्राचीन ग्रन्थ है । किसके द्वारा रचा गया है, यह ज्ञात नहीं होता। इसमें सत्संख्यादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से जीवसमासों की प्ररूपणा की गयी है । श्रा. प्र. में गा. ६८ के द्वारा अनाहारक जीवों का निर्देश किया गया है। यह गाथा जीवसमास (१-८२ ) में पायी जाती है। इसे १. सम्यक्त्व के इन दस भेदों का निरूपण कुछ थोड़े से परिवर्तन के साथ तत्त्वार्थवार्तिक ( ३, ३२, २) आदि अन्य ग्रन्थों में भी किया गया है।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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