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प्रस्तावना
वि. भाष्य में सामायिक लाभ के प्रसंग में पल्य, गिरिसरित् पिपीलिका, तीन मनुष्य, पथ, ज्वर, कोद्रव, जल और वस्त्र इनके दृष्टान्त दिये गये हैं । (वि. भा. १२०१, निं. १०७) । आगे वहाँ इन दृष्टान्तों को यथाक्रम से स्पष्ट भी किया गया है। श्रा. प्र. की गा. ३५-३७ में पल्य का उदारहण देकर बन्ध और निर्जरा की हीनाधिकता को दिखलाया गया है। ये तीनों गाथाएँ वि. भाष्य की स्वोपज्ञ वृत्ति (१२०२-३) में ‘असंयतस्य च बहुतरस्य चयः अल्पतरस्य चापचयः, यतोऽभिहितम्' यह कहते हुए उद्धृत की गयी हैं ।
श्रा. प्र. की गा. ३१-३३ में यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि कर्म की जो स्थिति पूर्व में कही जा चुकी है उसमें जब जीव घर्षण और घूर्णन के निमित्त से एक कोड़ाकोड़ी को छोड़कर शेष सब सागरोपम कोड़ाकोड़ियों को क्षीण कर देता है तथा शेष रही उस एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थिति में भी जब स्तोक मात्र - पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और भी क्षीण कर देता है, तब तक जीव की कर्मग्रन्थि - कर्मजनित घन राग-द्वेषरूप परिणाम - अभिन्नपूर्व ही रहता है । पश्चात् उसका अपूर्वकरण परिणाम के द्वारा भेदन कर देने पर परम पद के हेतुभूत सम्यक्त्व का नियम से लाभ होता है । श्रा. प्र. का यह अभिप्राय विशेषावश्यक भाष्य की ११८८-९३ गाथाओं से प्रभावित है। गा. ३२ की टीका में तो हरिभद्र सूरि ने 'उक्तं च तत्समयज्ञैः' ऐसा निर्देश करते हुए वि. भा. की 'गंडित्ति सुदुब्भेओ' आदि गाथा (११९३) को उद्धृत भी कर दिया है। श्रा. प्र. की ये गाथाएँ वि. भाष्य में उपलब्ध होती हैंगाथांश केई भांति गिहिणो
श्रा. प्र.
वि. भा.
४२६८
४२६९
१२१९
१२२०
ता कह निज्जुत्ती
सम्मत्तम्मिय लद्धे एवं अप्परपडिए
३३३
३३४
३९०
३९१
६०७-२३
७४४-४७
७५१-५२
२७
(१४) श्रावकप्रज्ञप्ति और धर्मसंग्रहण
ग्रन्थकार के सम्बन्ध में विचार करते हुए यह पहले कहा जा चुका है कि श्रा. प्र. में ऐसी बीसों गाथाएँ हैं जो हरिभद्र सूरि विरचित अन्य ग्रन्थों में अभिन्न रूप में उसी क्रम से पायी जाती हैं। उनमें प्रथमतः हम धर्मसंग्रहण को लेते हैं । यह हरिभद्र सूरि के द्वारा प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। इसमें समस्त गाथासंख्या १३६९ है । रचनाशैली प्रायः दार्शनिक है । यथाप्रसंग इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गयी है । ऐसी यहाँ अनेक गाथाएँ हैं जो श्रावकप्रज्ञप्ति में प्रसंगानुसार उसी क्रम से पायी जाती हैं। यथाधर्म सं.
श्रा. प्र.
१०-२६
धर्मसं. ७५४-६३ ७८० ७९९-८१४
श्रा. प्र. ३३-४२ १०१
२७-३०
३१-३२
४३-६१
इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में लगभग ५४ गाथाएँ समान रूप में उपलब्ध होती हैं। इनमें गा. १०-२६ कर्म की मूल - उत्तर प्रकृतियों से, २७-३० कर्मस्थिति से, ३१-३२ कर्मग्रन्थि से, ३३-४२ सम्यक्त्वलाभ व तद्विषयक शंका-समाधान से, १०१ जीव व कर्म की बलवत्ता से और ४३ - ६१ सम्यक्त्वभेद व उसके चिह्नों से सम्बद्ध हैं ।
(१५) श्रावकप्रज्ञप्ति व पंचाशक प्रकरण
पंचाशक यह हरिभद्र सूरि द्वारा विरचित ग्रन्थ श्रावकधर्म व जिनदीक्षाविधि आदि १९ पंचाशकों में विभक्त है | गाथासंख्या उसकी ९४० है । उसका प्रथम पंचाशक श्रावकधर्म से सम्बद्ध है। अधिकांश