________________
--२६६] तृतीयाणुव्रतप्ररूपणा
१५७ परलोकाविरुद्धम् । स्व-परोभयानां यत् खलु न सर्वथा पीडाजनकम्-तत्र स्वपीडाजनकं पिङ्गलस्थ. पतिवचनवत्, परपीडाजनक चौरस्त्वमित्यादि, एवमुभयपीडाजनकमपि द्रष्टव्यमिति ॥२६४॥ उक्तं द्वितीयाणुव्रतम्, सांप्रतं तृतीयमाह
थूलमदत्तादाणे विरई तच्चं दुहा य तं भणियं ।
सचित्ताचित्तगयं समासओ वीयरागेहिं ॥२६॥ इहादत्तादानं द्विधा स्थूलं सूक्ष्मं च । तत्र परिस्थूलविषयं चौर्यारोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमतिदुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूलम् । विपरीतमितरत् । तत्र स्थूलादत्तादानविषया विरतिनिवृत्तिस्तृतीयमणुव्रतमिति गम्यते । द्विघा च तददत्तादानं भणितम, समासतः संक्षेपेण । वीतरागैरहदभिरिति योगः। सचित्ताचित्तगतमिति सचित्तादत्तादानम् अचित्तादत्तावानं च । तत्र द्विपदादेर्वस्तुनः क्षेत्रादौ सुन्यस्त-दुर्व्यस्त-विस्मृतस्य स्वामिना अवत्तस्य चौर्यबुद्धचा ग्रहणं सचितावत्तादानं, तथा वस्त्रकनकादेरचित्तादत्तादानमिति ॥२६५॥
भेएण लवण-घोडग-सुवन्न-रुप्पाइयं अणेगविहं ।
बज्जणमिमस्स सम्म पुवुत्तेणेव विहिणा उ ॥२६६॥ भेदेन विशेषेणादत्तादानं लवण-घोटक-रूप्य-सुवर्णाद्यनेकविधमनेकप्रकारम् । लवण-घोटक. ग्रहणात्सचित्तपरिग्रहः, रूप्य-सुवर्णग्रहणादचित्तपरिग्रह इति वर्जनमस्यादत्तावानस्य। सम्यक पूर्वोक्तेन विधिना उपयुक्तो गुरुभूले इत्यादिनेति ॥२६६॥ परिशुद्ध हो-इस लोक व परलोकमें हितकर हो, तथा जो पिंगल बढ़ईके समान स्वको, परको और उभयको सर्वथा पोड़ाका कारण न हो ॥२६४॥
अब क्रमप्राप्त तीसरे अणुव्रतका निर्देश किया जाता है
बिना दी हुई स्थूल वस्तुके ग्रहणविषयक विरतिका नाम तीसरा अणुव्रत है, जिसे अचौर्याणुव्रत कहा जाता है। सचित्त और अचित्त वस्तुसे सम्बद्ध होने के कारण वह वीतराग जिनके द्वारा दो प्रकारका कहा गया है।
विवेचन-स्वामोके द्वारा नहीं दी गयी वस्तुके ग्रहणका नाम अदत्तादान है। वह स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें जिस स्थूल वस्तुके ग्रहणपर चोरोका आरोप सम्भव है उसे दूषित चित्तवृत्तिसे ग्रहण करना, इसे स्थूल अदत्तादान कहा जाता है। इसके विवरोत जिस जल और मिट्टी आदिके ग्रहण करनेपर चोर नहीं समझा जाता है उसका नाम सूक्ष्म अदत्तादान है। यह सूक्ष्म अदत्तादान स्थूल अदत्तादान व्रतीके लिए अपरिहार्य है। उक्त अदत्तादान सचित्त और अचित्त वस्तुके सम्बन्धसे भी दो प्रकारका है। किसो विशिष्ट क्षेत्र आदिमें जिस किसी भी प्रकारसे रखे गये दासी-दास एवं हाथी व घोड़े आदि किन्हीं द्विपद प्राणियोंका स्वामीकी आज्ञाके बिना चोरीके विचारसे ग्रहण करना, यह चित्तादान कहलाता है। वस्त्र, सोना एवं चांदी आदि अचित्त वस्तुओंको चोरीके अभिप्रायसे ग्रहण करना, इसे अचित्तादान कहा जाता है ।।२६५॥
आगे प्रकृत स्थूल अदत्तादानका उदाहरणपूर्वक कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है
विशेष रूपसे वह अदत्तादान नमक, घोड़ा, सुवर्ण व चाँदी आदि रूपसे अनेक प्रकारका है। इसका परित्याग पूर्वोक्त (१०८) विधिके अनुसार ही समीचोन रूपसे करना चाहिए। उक्त
१. इहलोकपरिशुद्धाविरुद्ध । २. अ दुहा ए यं भणियं । ३. अ सुन्यस्तविस्मृतस्य । ४. अ सुवन्नरूपागं ।