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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[२६३ - पूर्ववत् ॥२६२॥
सहसा अब्भक्खाणं रहसा य सदारमंतभेयं च ।
मोसोवएसयं कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ॥२६३॥ सहसानालोच्याभ्याख्यानं सहसाभ्याख्यानम् । अभ्याख्यानमभिशपनमसदध्यारोपणम् । तद्यथा-चौरः त्वं पारदारिको वा-इत्यादि । १ । रहः एकान्तस्तत्र भवं रहस्यं तेन तस्मिन् वाभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्यानम् । एतदुक्तं भवति-एकान्ते मन्त्रयमाणान् वक्त्येते हीदं चेदं च राजापकारित्वादि मन्त्रयन्ते इति । २। स्वदारमन्त्रभेदं च स्वकलत्रविश्रब्धभाषितान्यकथनं चेत्यर्थः । ३ । मृषोपदेशमसदुपदेशमिदमेवं चैवं च कुवित्यादिलक्षणम् । ४ । कूटलेखकरणमन्यमुद्राक्षरविम्वसरूपलेखकरणं च वजयेत् ।। यत एतानि समाचरन्नतिचरति द्वितीयमणुव्रतमिति ॥२६३॥
बुद्धोइ निएऊणं भासिज्जा उभयलोगयरिसुद्धं ।
स-परोभयाण जं खलु न सव्वहा पोडजणगं तु ॥२६४॥ बुद्धथा निरीक्ष्य, सम्यगालोच्येति भावः। भाषेत ब्रूयात् । उभयलोकपरिशुद्धं इहलोक
व्रतको स्वीकार करके व आगमोक्त विधिके अनुसार उसके अतिचारोंको जानकर उसके सम्पूर्ण परिपालनके लिए उन्हें प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए ।।२६२।।।
अब इस सत्याणवतके उन अतिचारोंका निर्देश किया जाता है
सहसा अभ्यख्यान, रहस्याभ्याख्यान, स्वदारमन्त्रभेद, मृषोपदेश और कूटलेखकरण ये उस स्थूल मृषावाद अणुव्रतके पाँच अतिचार हैं । उनका परित्याग करना चाहिए।
विवेचन-(१) सहसा अभ्यख्यान-किसी प्रकारका विचार न करके 'तू चोर है, परदारगामी है' इत्यादि प्रकारसे वचन बोलकर दोषारोपण करना। यह उसका प्रथम अतिचार है। (२) रहस्याभ्याख्यान-रहस् नाम एकान्त है, उसमें किये आचरणको रहस्य कहा जाता है। दुसरेके द्वारा एकान्तमें किये गये व्यवहारको अन्य जनोंसे कहना, यह रहस्याभ्याख्यान नामका उसका दूसरा अतिचार है। जैसे-यदि कुछ व्यक्ति एकान्तमें कुछ विचार-विमर्श कर रहे हों तो उनके विषयमें कहना कि ये राजाके विरुद्ध गुप्त विचार कर रहे हैं इत्यादि । (३) स्वदारमन्त्रभेदअपनी पत्नीके द्वारा विश्वस्तरूपमें कहे गये वचनोंको दूसरोंसे कहना, स्वदारमन्त्रभेद नामका प्रकृत व्रतका तीसरा अतिचार है। (४) मृषोपदेश-अप्रशस्त उपदेशका नाम मृषोपदेश है। अभिप्राय यह है कि जो वस्तुस्वरूप जिस प्रकारका नहीं है उसे उस प्रकारका बतलाकर प्राणियोंको अहितकर कार्यों में प्रवृत्त करना तथा प्रमादके वश ऐसा वचन बोलना कि जिससे दूसरोंको कष्ट हो-जैसे गधे व ऊंटपर अधिक बोझा लादना चाहिए, इत्यादि प्रकारके वचनको मृषोपदेशके अन्तर्गत समझना चाहिए। (५) कूटलेखकरण-दूसरेकी मुहर या हस्ताक्षर बनाकर असमीन प्रवृत्ति करना, इत्यादिका नाम कूटलखकरण है। इन अतिचारोंके द्वारा प्रकृत व्रत मलिन होता है, अतः स्थूलमृषावाद अणुव्रतके धारक श्रावकको इन अतिचारोंका तथा इनके जैसे अन्य दोषोंका भी परित्याग अवश्य करना चाहिए ।।२६३।।
___ आगे सत्याणुव्रती श्रावकको किस प्रकारका वचन बोलना चाहिए, इसे स्पष्ट किया जाता है
सत्याणुव्रतीको बुद्धिसे सोच-विचार करके ऐसा भाषण करना चाहिए जो उभय लोकोंमें