________________
१५८ श्रावकप्रज्ञप्तिः
[२६७ - पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं ।
संपुन्नपालणहा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२६७।। पूर्ववत् ॥२६७॥ अतिचारानाह
वज्जिज्जा तेनाहडतक्करजोगं विरुद्धरज्जं च ।
कूडतुल-कूडमाणं तप्पडिरूवं च ववहारं ॥२६८॥ वर्जयेत् स्तेनाहृतं स्तेनाश्चौरास्तैराहतमानीतं किंचित्कुंकुमादि देशान्तरात् तत्समर्थमिति लोभान्न गृहोरात् ।१॥ तथा तस्करप्रयोगं तस्कराश्चौरास्तेषां प्रयोगो हरणक्रियायां प्रेरणमभ्यनुज्ञा हरत यूमिति तस्करप्रयोगः। एनं च वर्जयेत् । २। विरुद्धराज्यमिति च सूचनाद्विरुद्धराज्यातिक्रम च वर्जयेत्-विरुद्धनृपयो राज्यं विरुद्धराज्यम्, तत्रातिक्रमो न हि ताभ्यां तत्र तदागमनमनुज्ञातमिति । ३। तथा कूटतुला-कूटमाने तुला प्रतोता, मानं कुडवादि, कूटत्वं न्यूनाधिकत्वम्-न्यूनया वस्तुओंमें नमक और घोड़ा आदि सचित्त वस्तुओंके उपलक्षण हैं तथा सुवर्ण व चांदो आदि अचित्त वस्तुओंके उपलक्षण हैं। इन सबके ग्रहणका परित्याग पूर्वोक्त विधिके अनुसार गुरुके पादमूलमें करना चाहिए, यह प्रकृत गाथाका अभिप्राय है ।।२६६।।
अब उसके अतिचारोंका निर्देश करते हुए उनके परित्यागके लिए प्रेरणा की जाती है
प्रकृत व्रतको स्वीकार करके और आगमोक्त विधिके अनुसार उसके अतिचारोंको जानकर उसका पूर्णतया परिपालन करने के लिए उन अतिवारोंका प्रयत्नपूर्वक परित्याग करना चाहिए ॥२६७॥
आगे उन अतिचारोंका नामनिर्देश किया जाता है
स्तेनाहृत, तस्करप्रयोग, विरुद्ध राज्य, कूटतुला-कूटमान और तत्प्रतिरूप व्यवहार, ये उसके पांच अतिचार हैं, जिनका अचौर्याणुवतीको परित्याग करना चाहिए।
विवेचन-इन अतिचारोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-(१) स्तेनाहृत-स्तेनका अर्थ चोर होता है । चोरों द्वारा अन्य देशसे चोरीचोरी लायी गयी केसर व कस्तूरी आदि मूल्यवान् वस्तुओंको लोभके वश ग्रहण करना। यह उसका प्रथम अतिचार है। (२) तस्करप्रयोग-तस्करका अर्थ भी चार होता है। चोरोंको चोरीके कार्यमें प्रेरित करते हुए 'तुम इस-इस प्रकारसे चोरी करो' इत्यादि रूपसे अनुज्ञा करना, इसे तस्करप्रयोग कहा जाता है । यह उसका दूसरा अतिचार है। (३) विरुद्ध राज्य–विरुद्ध राज्य शब्दसे यहां विरुद्धराज्यातिक्रमका अभिप्राय रहा है। राजाओंके राज्यको विरुद्ध राज्य कहा जाता है। प्रत्येक राज्य से दूसरे राज्यमें वस्तुओंके आनेजानेके लिए कुछ नियम निर्धारित रहते हैं। उनका उल्लंघन करके चोरोसे कर (टैक्स) आदिको बचाकर एक राज्यसे दूसरे राज्यमें वस्तुका ले जाना व वहाँसे अपने यहां ले आना, यह विरुद्ध राज्यातिक्रम नामका उसका तीसरा अतिचार है । (४) कूटतुला-कूटमान-तुलाका अर्थ तराजू या कोटा तथा मानका अर्थ मापने-तौलनेके प्रस्थ, आढक एवं बांट (सेर व किलोमीटर आदि ) होता है। इनको देनेके लिए और लेनेके लिए अधिक प्रमाणमें रखना, इसे कूटतुला-कूटमान कहते हैं । यह उस व्रतका चोथा अतिचार है। (५) प्रतिरूपक-व्यवहार-प्रतिरूपका अर्थ
१. भ ववहरणं ।