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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[२४४समयमानसिद्धः तत्सिद्धिः सर्वप्राणातिपातनिर्वृत्ति सिद्धिः "सव्वं भंते पाणाइवायं पच्चक्खामि" इत्यादिवचनप्रामाण्याद् । आगमस्याप्यविषयप्रवृतिदुष्टैवेति एतदाशङ्कयाह-अशुभाशयवर्जनमिति कृत्वा अदुष्टा तद्वधनिवृत्तिः, अन्तःकरणादिसंभवालंबनत्वाच्चेति वक्ष्यतीति ॥२४३॥
आवडियाकरणं पि हु न अप्पमायाओ नियमओ अन्नं ।
अन्नत्ते तब्भावे वि हंत विहला तई होइ ॥२४४॥ आपतिताकरणमपि पूर्वपक्षवाद्यपन्यस्तम् । नाप्रमादानियमतोऽन्यत्, अपि स्वप्रमाद एव तदिति । अन्यत्वेऽप्रमादादन्तिरत्वे आपतिताकरणस्य । तद्भावेऽप्यप्रमावभावेऽपि हंत विफलासौ निवृत्तिर्भवति, इष्यते चाविप्रतिपत्त्या अप्रमत्ततायां फलमिति ॥२४४॥ सकते हैं, यह आगमप्रमाणसे सिद्ध है, क्योंकि परमागममें उन्हें निरुपक्रमायुष्क कहा गया है। वादीके इस अभिमतका निराकरण करते हुए यहां यह भी कहा गया है कि जिस आगममें उक्त देव-नारक आदिको निरुपक्रमायुष्क कहा गया है उसी आगममें समस्त प्राणियोंके वधके प्रत्याख्यानको भी विधेय कहा गया है। तदनुसार सामान्य सब ही प्राणियोंके वधकी निवृत्तिको क्यों न उचित माना जाये ? उसे ही उचित मानना चाहिए । इसपर वादी पुनः यह कहता है कि आगमकी इस अविषय प्रवृत्तिको निर्दोष नहीं कहा जा सकता। इसको लक्ष्य में रखकर यहाँ कहा गया है कि सब प्राणियोंका वध सम्भव हो या न भी हो तो भी सामान्यसे समस्त प्राणियोंके वधको निवृत्तिको स्वीकार करनेपर प्रत्याख्यान करनेवालेका अभिप्राय निमल रहता है, अतः समस्त प्राणियोंके ही वधविषयक निवृत्तिको उचित माना गया है ॥२४३।।
आगे वादोके द्वारा जिस आपतिताकरणका पूर्वमें ( २३५ ) निर्देश किया गया है उसका यथार्थ अभिप्राय क्या है, यह दिखलाते हैं
आपतितका अकरण-वधकी निवृत्तिके स्वीकार करनेपर वधविषयक शक्तिके होते हुए भी अवसर प्राप्त होनेपर उसे न करना -भी अप्रमादसे कुछ भिन्न नहीं है, किन्तु वह अप्रमाद (प्रमादके अभाव ) स्वरूप ही है। यदि ऐसा न मानकर उक्त आपतितके अकरणको उससे (प्रमादके अभावसे ) भिन्न माना जाता है तो आपतितके न करनेपर भी खेद है कि वह निवृत्ति निष्फल हो रहनेवाली है।
विवेचन-वादीने अपने पक्षको स्थापित करते हए यह कहा था कि जिन प्राणियोंका वध किया जा सकता है उन्होंके वधको निवृत्ति करना योग्य है, क्योंकि तब निवृत्तिको स्वीकार करनेवाला आपतितके अकरणमें उपस्थित वध्य प्राणीके वधका अवसर प्राप्त होनेपर भी वह अपनी वधविषयक उस शक्तिको रोककर उसका वध नहीं करता है। इसलिए यहां उस वधको निवृत्तिको सफलता देखी है। पर जिन नारक और देवादिका वध शक्य ही नहीं है उनके वधकी निवृत्तिका कुछ फल सम्भव नहीं है, क्योंकि वहां उस अविद्यमान शक्तिका निरोध सम्भव नहीं है। इस प्रकार वादीने जिस आपतिताकरणको सम्भवका अर्थ प्रकट किया था उसके यथार्थ अभिप्रायको व्यक्त करते हुए सिद्धान्त पक्षको ओरसे कहा गया है कि उपर्युक्त आपतिताकरण अप्रमादसे कुछ भिन्न नहीं है, किन्तु वह उस अप्रमाद-प्रमादके अभावस्वरूप ही है। इसके विपरीत यदि उसे अप्रमादसे भिन्न-प्रमादस्वरूप माना जाता है तो उस आपतिताकरणके होते हुए भी उस निवृत्तिका कुछ फल सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रमादके रहनेपर किया जानेवाला
१. अ भावे हित।