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वधविषयाणामेव वधनिवृत्तिर्युक्ता इत्येतन्निराकरणम्
नियमो न संभव इहावश्यता' न संभव इहोच्यते यदुत यज्जातीय एको हतस्तज्जातीया: सर्वेऽपि हन्तव्याः, यज्जातीयस्तु न हतस्तज्जातीया न हन्तव्या एव । किन्तु शक्तिमात्रमेव तज्जातीयेतरेषु व्यापादनशक्तिमात्रमेव संभवः । तत्कथं दोषोऽनन्तरोदितो नैवेत्यभिप्राय इति एतदाशङ्कयाह-सा येन कार्यंगम्येति सा शक्तिर्यस्मात्कार्यंगम्या वर्तते अतो दोष इति, वधमन्तरेण तदपरिज्ञानात् । सति च तस्मिन् कि तयेत्यभिहितमेवैतत् । अथ सा कार्यमन्तरेणाप्यभ्युपगम्यते इति एतदाशङ्कयाह - तदभावे कार्याभावे । कि न शेषेषु सत्वेषु साभ्युपगम्यते ? तथा च सत्यविशेषत एव निवृत्तिसिद्धिरिति ॥ २४२॥
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२४३ ]
स्यादेतन्न सर्वसत्वेषु सा अतो नाभ्युपगम्यत इति । आह चनागदेवाईसुं असंभवा समयमाणसिद्धीओ ।
तु चितसिद्धी असुहासयवज्जणमदुट्ठा ||२४३॥
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नारक- देवादिष्वसंभवाद्वयापादनशक्तेनिरुपक्रमायुषस्त इति आदिशब्दाद्देव कुरु निवास्यादिपरिग्रहः कुत एतदिति चेत् समयमानसिद्धेरागमप्रामाण्यादिति । एतदाशङ्कयाह-अत एव के विषय में भी उस शक्तिको सम्भावना क्यों नहीं हो सकती है ? उनके वधविषयक शक्तिकी भी सम्भावना की जा सकती है ।
विवेचन - जिस जातिका एक प्राणी मारा गया है उस जातिके सब प्राणियोंके वधकी शक्ति है, इसे वादीने सम्भव बतलाया था, जिसका निराकरण करते हुए उसे व्यभिचरित ठहराया गया था । इस व्यभिचार दोषको असम्भव बतलाते हुए यहाँ वादी कहता है कि जिस जातिका प्राणी मारा गया है उस जातिके सभी प्राणी वध्य हैं तथा जिस जातिका प्राणी नहीं मारा गया है उस जाति के सब वध्य नहीं हैं, इस प्रकार के नियमको हम सम्भव नहीं कहते, जिसके आश्रयसे व्यभिचार दोष दिया गया है । किन्तु विवक्षित वधकके द्वारा जिस जातिका एक प्राणी मारा गया है उस जाति के सब प्राणियोंके वधविषयक शक्ति उसमें है । अतः उस शक्तिके निरोधके लिए उसे उनके वधकी निवृत्ति कराना उचित व सफल है। इससे जो पूर्व में ( २४० ) व्यभिचार दोष दिया गया है वह दोष लागू नहीं होता । वादोके इस कथनको असंगत ठहराते हुए यहाँ पुनः यह कहा गया है कि उस शक्तिका बोध वधरूप कार्यके बिना नहीं हो सकता है । और यदि वधरूप कार्यके बिना भी उस शक्तिका परिज्ञान सम्भव है तो फिर विवक्षित जातिके अतिरिक्त अन्य प्राणियोंके वधविषयक शक्तिकी भी सम्भावना उसमें क्यों नहीं की जा सकती है ? उनके विषय में भी वह सम्भव है । इसलिए सामान्यसे सभी प्राणियों के वधविषयक निवृत्ति कराना चाहिए, न कि किसी विशेष जातिके || २४२ ||
इस पर वादी पुनः कहता है
नारक व देव आदिके विषय में वधशक्ति सम्भव नहीं है, यह आगमप्रमाणसे सिद्ध है । इसके उत्तर में कहा जाता है कि उस आगम प्रमाणसे तो समस्त प्राणियों के वधकी निवृत्ति भी सिद्ध है । सामान्यसे की जानेवाली वधको निवृत्ति में चूंकि अशुभ अभिप्रायका परित्याग किया जाता है, इसीलिए वह निर्दोष है ।
विवेचन-वादी कहता है कि जब नारक व देव आदिके वधको शक्ति किसीमें नहीं है तब उनके भी वध की निवृत्ति कराना असंगत है । उक्त नारक आदि किसीके द्वारा नहीं मारे जा
१. अ इहावस्यता । २.
देवगुरुनिवास्या परिग्रहः ।