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अकालमरणाभाववादिनामभिमतनिरासः इति वचनाद्भगवन्मतविरोधः ? न, भगवद्वोदृढदानात्' आलदानात् । नानुभवविरुद्धवस्तुवादी भगवान्, नयविषयत्वात् । तस्य च शरीरस्य वधे घाते। एवमुक्तन्यायाज्जीवानुवेधसिद्धौ तस्य जीवस्य वधो भवति ज्ञातव्य इति ॥१९०॥ अधुना वधलक्षणमेवाह
तप्पज्जायविणासो दुक्खुप्पाओ अ संकिलेसो य ।
एस वहो जिणभणिओ तज्जेयवो पयत्तेणं ॥१९१॥ तत्पर्यायविनाशः मनुष्यादिजीवपर्यायविनाशः, दुःखोत्पादश्व व्यापाद्यमानस्य चित्तसंक्लेशश्चे क्लिष्टचित्तोत्पादश्चात्मनः । एष नधो व्यस्तः समस्तो वा ओघतो जिनभणितः तीर्थकरोक्तो वर्जयितव्यः प्रयत्नेनोपयोगसारेगानुष्ठानेनेति ॥१९१॥ इदानीमन्यद्वादस्थानकम्--
अन्ने अकालमरणसभावओ वहनिवित्तिमो मोहा ।
वंझासुअपिसियासणनिवित्तितुल्लं ववइसंति ॥१९२।। ठीक इसी प्रकारसे जीव और शरीर एकक्षेत्रावगाहरूप होकर एक दूसरेके प्रदेशोंमें अनुप्रविष्ट होते हुए स्थित रहते हैं। इससे उनमें कथंचित् अभेद होकर भी वस्तुतः भेद हो है। उनके इस भेदका अनुभव सम्यग्दृष्टिको होता है, मिथ्यादृष्टिको नहीं होता। यहां यह शंका हो सकती है कि जब वे दोनों एक दूसरेके प्रदेशोंमें अनुप्रविष्ट हैं तो उनमें इतरेतररूपताका प्रसंग प्राप्त होता है-- वैसी अवस्थामें जीवको शरीर और शरीरको जीव हो जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त आगममें जो यह कहा गया है कि अमूर्त द्रव्य कभी मूर्त नहीं होता और मूर्त द्रव्य कभी अमूर्त नहीं होता है, इस आगमविरोधको भी वैसी अवस्थामें कैसे टाला जा सकता है ? नहीं टाला जा सकता। इसके उत्तरमें यहां यह कहा जा रहा है कि आगममें जो वैसा कहा गया है वह यथार्थ है, उसमें कुछ विरोध नहीं है। सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा जो कुछ कहा गया है वह अनुभवसिद्ध है, अनुभवके विरुद्ध आगममें कुछ नहीं कहा गया। वह सब कथन नयसापेक्ष है। यथा-व्यवहारमें शरीरसे पृथक् जीवको नहीं देखा जाता तथा उस शरीरके आश्रयसे उसे सुख-दुखका वेदन भी होता है, इसलिए व्यवहार नयकी अपेक्षा जीव व शरीर में कथंचित् अभेद माना गया है। परन्तु जीव जहां चेतन है वहां वह शरीर जड़ है-वेतनासे शून्य है, इसी प्रकार जहाँ स्वभावतः वर्णादिसे विरहित होकर अमूर्त है वहां वह शरीर वर्णादिसे सहित होकर मूतं है । इस प्रकार निश्चयनयको अपेक्षा स्वरूपभेद होनेसे उन दोनोंमें कथंचित् भेद भी है। इसीलिए शरीरके वधसे उससे सम्बद्ध जीवका वध अवश्य होनेवाला है। यही उस आगमका रहस्य है ।।१९०।।
आगे उस वधका ही लक्षण कहा जाता है
जिससे जीवको उस पर्यायका-मनुष्य व हिरण आदि अवस्था विशेषका-विनाश होता है, उसे दुख उत्पन्न होता है, तथा परिणाममें संक्लेश होता है उसे जिन भगवान्के द्वारा वध कहा गया है । उसे प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए ॥१९॥
अब जो अकालमरणको नहीं मानते हैं उनके अभिमतानुसार वधको असम्भवताको प्रकट किया जाता है
१. अ विरोधो न भवद्वोढदानात । २. अमानस्य संक्लेशश्च । ३. अ वविदिसंति।