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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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अन्ये वादिनः स्वकृतकर्मफलं प्रत्युपभोगभावेन अकालमरणस्याभावाद्वधनिवृत्तिमेव मोहाद्वेतोर्वन्ध्यासुतपिशिताशननिवृत्तितुल्यां व्यपदिशन्ति - वन्ध्यासुतस्यैवाभावात्तत्पिशितस्याप्यभावः, पिशितं मांसमुच्यते, तदभावाच्च कुतस्तस्याशनं भक्षणम् ? असति तस्मिन्निविषया तन्निवृत्तिः । एवमकालमरणाभावेन वधाभावाद्वधनिवृत्तिरपीति ॥१९२॥
एतदेव समर्थयति -
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अज्झी yoवकए न मरइ झीणे य जीवइ न कोइ ।
सयमेव ता कह वही उवक्कमाओ वि नो जुत्तो ॥ १९३॥
अक्षीणे पूर्वकृते आयुष्ककर्मणि । न म्रियते कश्चित् स्वकृतकर्मफलं प्रत्युपभोगाभावप्रसङ्गात् । क्षीणे च तस्मिन् जीवति न कश्चित्, अकृताभ्यागम- कृतनाशप्रसङ्गात् । स्वयमेवात्मनैवैतदेवमिति । तत्तस्मात्कथं वधो निमित्ताभावात् ? नास्त्येवेत्यभिप्रायः । कर्मोपक्रमादभविष्यतीत्येतदाशङ्कयाह -- उपक्रमादपि अपान्तराल एव तत्क्षयलक्षणान्न युक्तं इति ॥१९३॥
अत्रैवोपपत्तिमाह
कम्मो का मिज्जइ अपत्तकालं पि जइ तओ पत्ता । अकयागम-कयनासा मुक्खाणासासयाँ दोसा ॥ १९४॥
अन्य कितने ही वादी अकालमरणके अभाव से उस वधकी निवृत्तिको अज्ञानता के कारण वन्ध्यापुत्र के मांस भक्षणको निवृत्तिके समान बतलाते हैं ।
विवेचन - कितने ही वादी यह मानते हैं कि प्राणी जो भी कर्म बाँधता है उसका पूरा फल भोग लेनेके पश्चात् ही वह यथासमय निर्जीर्ण होता है । तदनुसार जिस जीवने जितने काल प्रमाण आयु कर्मको बाँधा है उतने काल उसके फलको भोग लेनेपर ही वह समयानुसार नष्ट होती है, पूर्व में उसका विनाश सम्भव नहीं है। इस प्रकार जब प्राणीके अकालमें मरनेको सम्भावना ही नहीं है तब उसके वधकी निवृत्ति कराना इस प्रकार हास्यास्पद है जिस प्रकार कि वन्ध्यापुत्र के मांस भक्षणकी निवृत्ति कराना । अभिप्राय यह है कि जब बाँझ स्त्रीके पुत्रका होना ही असम्भव है तब उसका मांस भी आकाशके फूलके समान असम्भव होगा । ऐसी अवस्था में जिस प्रकार उसके मांस भक्षणका त्याग कराना अज्ञानतासे परिपूर्ण है उसी प्रकार अकालमें किसी भी जीवके मरनेकी सम्भावना न होनेसे उसके वधका परित्याग कराना भी अज्ञानता से परिपूर्ण होगा ॥१९२॥
उक्त वादी आगे अपने इसी अभिमतका समर्थन करता है
पूर्वकृत आयुकर्मके क्षीण न होनेपर कोई जीव मरता नहीं है तथा उसके क्षयको प्राप्त हो जानेपर कोई स्वयं ही जीवित नहीं रह सकता है । फिर ऐसी अवस्था में वध कैसे हो सकता है ? वैसी अवस्था में उस वधकी सम्भावना ही नहीं रहती । यदि कहा जाये कि उपक्रमसे वह वध हो सकता है तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपक्रमसे भी वह वध योग्य नहीं है ।।१९३।। उपक्रमसे वह वध क्यों योग्य नहीं है, इसके लिए वादी आगे युक्ति देता है
यदि समय के प्राप्त होने के पूर्वं भी कर्मका उपक्रम कराया जा सकता है तो इससे अकृतका अभ्यागम — उसकी प्राप्ति - और कृतका नाश तथा मोक्ष के विषय में आश्वासता ये दोष प्राप्त होते हैं ।
१. अमरणाभावाद्वघनिवृत्तिरपीति । २. अ जीवित न कश्चित् कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसंगात् । ३. अ मोखाणोसासया ।