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श्रावकप्रज्ञप्तिः
यदि न युज्यन्ते नाम का 'हानिरित्येतदाशंक्याह
[ १८९ –
स- चंदण - विस- सत्थाइजोगओ तस्स अह य दीसंति ।
तभावं विभिन्नवत्थुपए ण एवं तु ॥ १८९ ॥
सक्-चन्दन- विष- शस्त्रादियोगतस्तस्य शरीरस्याथ च दृश्यन्ते स्वकीयेऽनुभवेन अन्यदीये रोमाञ्चादिलिङ्गत इति । विपक्षे बाधामाह-तद्भावेऽपि खगादिभावेऽपि । तद्भिन्नवस्तुप्रगते आत्मभिन्नघटादिवस्तुसंगते न एवं सुखादयो दृश्यन्ते । न हि घटे स्रगादिभिश्चचितेऽपि देवदत्तस्य सुखादय इति ॥ १८९ ॥
उपसंहरन्नाह
अन्नुन्नाणुगमाओ भिन्नाभिन्नो तओ सरीराओ ।
तस् य वहमि एवं तस्स वहो होड़ नायव्वो ॥ १९० ॥ अन्योन्यानुगमाज्जीव- शरीरयोरन्यानुवेधाद्भिन्नाभिन्नोऽसौ जीवः शरीरात् । आह - अन्योन्यरूपानुवेधे इतरेतररूपपत्तिस्ततरच
नामूर्त मूर्ततां याति मृतं नायात्यमूर्तताम् । द्रव्यं त्रिष्वपि कालेषु च्यवते नात्मरूपतः ॥
वेदन नहीं होता । परन्तु कोमल या कठोर वस्तुका सम्बन्ध होनेपर शरीर में चूंकि सुख-दुखका वेदन अवश्य होता है इसीलिए वह आत्मासे सर्वथा भिन्न नहीं हो सकता || १८८||
आगे इसी अभिप्रायको स्पष्ट किया जाता हैपरन्तु माला व चन्दन आदि इष्ट वस्तुओंके
संयोगसे और विष व शस्त्र आदि अनिष्ट वस्तुओं के संयोग से उस शरीरके वे सुख-दुख अवश्य देखे जाते हैं - अपने शरीरमें जहाँ उनका वेदन अपने अनुभवसे सिद्ध है वहीं दूसरेके शरीर में उनका वेदन रोमांच आदि हेतुके आश्रयसे अनुमित है। इसके विपरीत देवदत्त आदिकी आत्मासे भिन्न घट आदिसे उक्त माला आदिका सम्बन्ध होनेपर कभी देवदत्त आदिको उस प्रकारसे सुख-दुख आदिका 'अनुभव नहीं होता है । इससे सिद्ध होता है कि जिस प्रकार जीवसे घटपटादि पदार्थ सर्वथा भिन्न हैं उस प्रकारसे शरीर जीवसे सर्वथा भिन्न नहीं है, किन्तु उन दोनों में कथंचित् अभेद भी है ॥ १८९ ॥
आगे इसका उपसंहार करते हुए निष्कर्ष प्रकट किया जाता है"
इसलिए परस्पर में अनुप्रविष्ट होने के कारण उसे ( जीवको ) शरीरसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानना चाहिए। इस प्रकार शरीरका वध करनेपर उस जीवके वधको जानना चाहिए ।
विवेचन - जिस प्रकार दूधमें पानीके मिलनेपर वे दोनों एक दूसरे में अनुप्रविष्ट होकर एक क्षेत्रावगाहरूपसे रहते हैं व इसीलिए उन दोनों में साधारण जनके लिए भेद परिलक्षित नहीं होता है, पर स्वभावतः वे दोनों पृथक्-पृथक् ही हैं, अथवा सुवर्ण में तांबे के मिलानेपर जिस प्रकार उन दोनों में साधारण जनको भिन्नताका बोध नहीं होता, किन्तु हैं वे दोनों स्वभावतः पृथक् पृथक्, यही कारण है जो सुवर्णकार रासायनिक प्रक्रियासे उनको अलग-अलग कर देता है।
- १. अ युज्यते नाम क नो हानि । २. अ तब्भिन्नवउगए । ३. अ ंत्तिस्ततज्ज । ४. अ नामृत्तं नायाति मूर्ततां ।