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वधासम्भवत्यवादिनामभिमतनिरासः
एवं च जीवदव्वस्स दव्व पज्जव विसेस भइयस्स । निच्चत्तमणिचत्तं च होइ णाओवलभंतं ॥ १८५ ॥
एवं चे जीवद्रव्यस्य । किविशिष्टस्य ? द्रव्य-पर्याय विशेष भक्तस्यानुभवसिद्धया उभयरूपतया विकल्पितस्य । नित्यत्वमनित्यत्वं च भवति न्यायोपलभ्यमानम् । पृथग्विभक्तिकरणं द्वयोरपि निमित्तभेदण्यापनार्थम् । न्यायः पुनरिह नारकाद्यवस्थासु मिथो भिन्नास्वपि जीवान्वय उपलभ्यते, तस्मिश्च नारकादिभेद इति ॥१८५॥
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द्वितीयपक्षमधिकृत्याह
एगतेण सरीरादनत्ते तस्स तकओ बंधो ।
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न घडइ न य सो कत्ता देहादत्थं तरभूओ || १८६ ॥
एकान्तेन सर्वथा । शरीरादन्यत्वे अभ्युपगम्यमाने । तस्य जीवस्य । किम् ? तत्कृतो बन्धः इसी प्रकार द्रव्य व पर्यायरूप विशेषों में विभक्त जीव द्रव्यको नित्यत्व व अनित्यत्व रूप अवस्था न्याय से उपलब्ध होती है ।
विवेचन -- प्रमुखता से नयके दो भेद स्वीकार किये गये हैं-- एक द्रव्यार्थिक और दूसरा पर्यायार्थिक | इनमें जिसका प्रयोजन द्रव्य रहता है, अर्थात् जो पर्यायको गौण कर द्रव्यकी मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण किया करता है, उसे द्रव्याथिक नय कहते हैं और जो द्रव्यको गौण कर पर्यायकी प्रमुखता से वस्तुको ग्रहण किया करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं । प्रकृतमें जीवका द्रव्य जीवत्व या चेतना है, इसकी प्रमुखतासे जब उसका विचार किया जाता है तब उसे कथंचित् नित्य कहा जाता है । कारण यह कि नर-नारकादिरूप जितना भी जोवको अवस्थाएं हैं उन सभी में उस चेतनाका अन्वय रहता है, नर-नारकादिरूप अवस्थाका विनाश होनेपर भी कभी उस चेतनाका विनाश नहीं होता, अन्यथा जड़ताका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा । इसके विपरीत जब उस द्रव्यको गौण कर पर्यायको प्रमुखता से उस जीवका विचार किया जाता है तब उक्त नर-नारकादि पर्यायोंके उत्पन्न व विनष्ट होनेके कारण उस जीवको पर्यायार्थिक नयको अपेक्षा कथंचित् अनित्य भी कहा जाता है। इस प्रकार अपेक्षाकृत उसके नित्य व अनित्य मानने में कोई विरोध नहीं है । लोकव्यवहार में भी यही दृष्टि रहती है । जैसे - एक ही व्यक्तिको अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता और अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र कहा जाता है । इसमें किसी प्रकारका विरोध नहीं माना जाता । उक्त दोनों नयोंके बिना वस्तुतः तत्त्वका विचार ही सम्भव नहीं है । इस प्रवादीके द्वारा जो नित्य पक्षमें या अनित्य पक्ष में दोष दिये गये हैं उनके प्रकृत में सम्भव न होने से वह वधकी विरति सार्थक ही है, निरर्थक नहीं है ॥१८५॥
आगे दूसरे पक्ष में जो वादीके द्वारा दोष प्रदर्शित किये गये हैं उनका भी निराकरण करते हुए शरीर से जीवके सर्वथा भिन्न मानने में दोष दिखलाते हैं
जीवको शरीर से सर्वथा भिन्न माननेपर उसके शरीर के आश्रयसे किया गया बन्ध घांटत नहीं होगा, इसके अतिरिक्त शरीरसे सर्वथा भिन्न होकर वह कर्ता भी नहीं हो सकता है ।
विवेचन-- प्राणी शरीरके माश्रयसे जब प्राणघातादिरूप पापाचरणमें प्रवृत्त होता है तब उसके बन्ध होता है । पर वादीके मतानुसार यदि वह शरीरसे सर्वथा भिन्न है तो उस अवस्था में
१. अतु । २. अ 'च' नास्ति ।