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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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स्वभावस्याध्यासितदेशव्यतिरेकेण देशान्तराध्यासायोगात् अन्यत्र च तस्यैवाभावेनापरानुत्पत्तेरिति । आदिशब्दात्स्थान - शयनासनभोजनादिपरिग्रहः । यद्यस्मादेवं तस्मात् । परिणाम्यसावात्मा भवति ज्ञातव्यः । परिणामलक्षणं चेदम् -
परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न तु सर्वथा व्यवस्थानम् ।
न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ १ ॥ इति ॥ १८३॥ एतदेव भावयति
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जह कंचणस्य कंचणभावेण अवद्वियस्स कडगाई ।
उप्पज्जंति विणस्संति चेव भावा अणेगविहा ॥ १८४ ॥
यथा काञ्चनस्य सुवर्णस्य । काञ्चनभावेन सर्वभावानुयायिन्या सुवर्णसत्तया । अवस्थितस्य कटकादयः कटक-केयूर-कर्णालंकारादयः । उत्पद्यन्ते आविर्भवन्ति, विनश्यन्ति च तिरोभवन्ति च । भावाः पर्यायाः । अनेकविधा अन्वयव्यतिरेकवन्तः स्वसंवेदनसिद्धा अनेकप्रकारा इति ॥ १८४ ॥
कथंचित् नित्य-अनित्य माननेके बिना लोकव्यवहार भी घटित नहीं होता, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है
इसीसे - जीवको सर्वथा नित्य या अनित्य माननेके कारण - गमनागमनादिरूप लोकप्रसिद्ध व्यवहार भी घटित नहीं हो सकता है । इसीलिए वह परिणामी है, ऐसा जानना चाहिए ।
विवेचन -- जीवको सर्वथा नित्य माननेपर जो गमन, आगमन, अन्य स्थानसे आकर स्थित होना, शयन, आसन और भोजन आदिका व्यवहार लोकमें देखा जाता है वह भी घटित नहीं होगा । कारण इसका यह है कि गमन क्रिया करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थानपर जानेमें एकरूपता (नित्यता ) रह नहीं सकती, स्थितिरूप अवस्थाको छोड़कर जब वह गमन क्रियासे परिणत होगा तभी वह अन्य अभीष्ट स्थानपर पहुँच सकेगा । यही अभिप्राय आगमन आदि अन्य व्यवहारके विषय में समझना चाहिए। इसके विपरीत जो उस जीवको सर्वथा अनित्य मानता है उसके मतमें भी उपर्युक्त गमनागमनादिका व्यवहार नहीं बन सकता । कारण यह कि यह सब व्यवहार कालक्रमकी अपेक्षा रखता है, अतः जीवको क्षणभंगुर माननेपर अनेक समयों में निष्पन्न होनेवाला वह सब व्यवहार कार्य बन नहीं सकता । इसीलिए जीवको सर्वथा नित्य या अनित्य न मानकर परिणमन स्वभाववाला मानना चाहिए । पदार्थका न सर्वथा अवस्थित रहना और न सर्वथा विनष्ट होना, किन्तु उसका अवस्थान्तरको प्राप्त होना, यही परिणमनका लक्षण है । उदाहरणार्थं सुवर्णके कड़ेको तुड़वाकर उसकी सांकल बनवाने में जहाँ कड़ेरूप पर्यायका विनाश व सकलरूप पर्यायकी उत्पत्ति होती है वहीं उन दोनों अवस्थाओं में सुवर्णरूपता बराबर बनी रहती है, न उसका विनाश होता है और न उत्पाद ही होता है, यही उस सुवर्णकी परिणमनशीलता है । इस परिणमनस्वभावको जीदमें ही नहीं, बल्कि चेतन-अचेतन सभी पदार्थों में अनिवार्य रूप से समझना चाहिए । तब ही लोकमें प्रचलित सब व्यवहार बन सकता है, अन्यथा नहीं
बन सकता ॥ १८३॥
आगे ग्रन्थकार इसी अभिप्रायको उक्त उदाहरणके द्वारा स्वयं व्यक्त करते हैं
जिस प्रकार सुवर्णरूपसे सभी व्यवस्थाओं में अवस्थित सुवर्णकी अनेक प्रकारकी — कटक, केयूर और कर्णफूल आदि - अवस्थाएं उत्पन्न होती हैं और विनष्ट भी होती हैं ॥ १८४ ॥
१. अ सर्वभेदानुयाजिन्या ।