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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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जीवस्य शरीरनिर्वाततो बन्धो न घटते, न हि स्वत एव गिरिशिखरपतितपाषाणतो जीवघाते देवदत्तस्य बन्ध इति । स्यादर्थान्तरस्यापि तत्करणकर्तृत्वेन बन्ध इत्येतदाशंक्याह - न चासौ कर्ता देहादर्थान्तरभूतः, निःक्रियत्वान्मुक्तादिभिरतिप्रसङ्गादिति ॥ १८६॥
स्यादेतत्प्रकृतिः करोति, पुरुष उपभुंक्त इत्येतदाशंक्याहअन्नकयफलुवभोगे अइप्पसंगो अचेयणं कह य ।
इतकं तदभावे भुंजइ य कहं अमुत्तोति ॥ १८७॥
अन्यकृत फलोपभोगे प्रकृत्यादिनिवर्तितफलानुभवेऽभ्युपगम्यमाने ऽतिप्रसङ्गः, भेदाविशेषेऽन्यकृतस्यान्यानुभवप्रसङ्गात् वास्तवसंबंधाभावात् । अचेतनं च कथं करोति तत्प्रधानम्, किचिदध्यवसायशून्यत्वात् घटवत् । न हि घटस्यापराप्रेरितस्य क्वचित्करणमुपलब्धम् । न च प्रेरकः पुरुषः, उदासीनत्वादेकस्वभावत्वाच्च । तदभावे भोग्याभावे शरीराभावे वा । भुंक्ते च कथं अमूर्त इति
उसके शरीर के आश्रयसे होनेवाला वह कमबन्ध घटित नहीं हो सकेगा । यदि कहो कि शरीरसे उसके भिन्न होनेपर भी शरीर के द्वारा की गयी क्रियासे उसके बन्ध माना जाता है, सो यह कहना भी ठाक नहीं है । कारण यह कि ऐसा माननेपर पर्वत के शिखर से स्वयं नीचे गिरे हुए पाषाणसे किन्हीं जोवोंका घात होनेपर उससे देवदत्तकें कर्मबन्धका प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि भिन्नता दोनों जगह समान है-वादीके मतानुसार जैसे जीवसे भिन्न शरीरके आश्रयसे उस जीवके बन्ध होता है उसी प्रकार देवदत्तस भिन्न उस पाषाणकी क्रियासे देवदत्त के भी बन्ध होना चाहिए । पर वह वादीको भी इष्ट नहीं है । इसपर यदि वादी यह कहे कि यद्यपि जीव शरीरसे भिन्न है, फिर भी जीव की प्रेरणा पाकर हो चूंकि शरोरमें क्रिया होती है इसलिए कारणकर्तृत्वरूपसे उसके बन्ध मानना उचित है, तो यह कहना भी ठोक नहीं है, क्योंकि शरीरसे भिन्न होनेपर वह स्वयं तो क्रियासे रहित है, अतः निष्क्रिय होनेसे वह कर्ता नहीं हो सकता । और यदि निष्क्रिय होते हुए भी उसके बन्ध माना जाता है तो मुक्त आदि जीवोंके साथ अतिप्रसंग प्राप्त होता है - निष्क्रिय होते हुए उनके भी बन्ध होना चाहिए। परन्तु उनके बन्ध होना वादीको भी अभीष्ट नहीं है || १८६॥
यदि वादी इसे अभीष्ट मानकर यह कहे कि कर्ता तो उसका समाधान आगे किया जाता है
प्रकृति है, पुरुष तो मात्र भोक्ता है,
अन्य (प्रकृति) के द्वारा किये गये कार्यके फलका उपभोग माननेपर अतिप्रसंग अनिवार्य होगा । दूसरे, जब वह प्रकृति ( प्रधान ) अचेतन है तब वह कर भी कैसे सकती है ? नहीं कर सकती है । इसके अतिरिक्त उसके - भोग्य अथवा शरीरके - अभाव में वह अमूर्तिक पुरुष भोग भी कैसे सकता है ? नहीं भोग सकता है ।
विवेचन - सांख्य मतमें प्रकृतिको कर्ता और पुरुषको भोक्ता माना गया है । इस अभिमतदूषित करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि यदि प्रकृतिके द्वारा किये गये कर्मके फलको पुरुष भोगता है, ऐसा माना जाता है तो इसमें अव्यवस्था होनेवाली है - उदाहरणार्थ देवदत्त के शरीरके द्वारा किये गये कर्मका फल जिनदत्तके भोगने में आ सकता है। कारण यह कि जैसे देवदत्तका शरीर उस देवदत्तसे भिन्न है वैसे ही वह जिनदत्त से भी भिन्न है । ऐसी अवस्था में देवदत्तके
१. कुण्ड तव्वतयभावे । २. अ म्युपगम्यमाने ' इत्यतोऽग्रे X एतच्चिह्नं दत्त्वा 'किंचिदध्यवसायशून्यत्वाः' पर्यन्तोऽग्रिमसंदर्भों न लिखितोऽत्र दृश्यते ।