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सातवाँ अध्याय
जाता है, अतः इसमें आत्मवधका दोष लगना चाहिये ? उत्तर- प्रमादके योगसे प्राणव्यपरोपणको हिंसा कहते हैं । चूँकि सल्लेखना में प्रमादका योग नहीं है अतः उसे आत्मवध नहीं कह सकते । राग द्वेष और मोह आदिसे कलुषित व्यक्ति जव विष शस्त्र आदिसे अभिप्रायपूर्वक घात करता है तब आत्मवधका दोष होता है, पर सल्लेखनाधारीके राग द्वेष आदि कलुषताएँ नहीं हैं अतः आत्मवधका दोष नहीं हो सकता । कहा भी है- "रागादिकी उत्पत्ति न होना अहिंसा है और रागादिका उत्पन्न होना ही हिंसा है।" फिर, मरण तो अनिष्ट होता है । जैसे अनेक प्रकारके सोने चाँदी कपड़ा आदि वस्तुओंका व्यापार करनेवाले किसी भी दुकानदारको अपनी दुकानका विनाश कभी इष्ट नहीं हो सकता, और विनाशके कारण आ जानेपर यथाशक्ति उनका परिहार करना संभव न हुआ तो वह बहुमूल्य पदार्थोंकी रक्षा करता है उसीतरह व्रतशील पुण्य आदिके संचयमें लगा हुआ गृहस्थ भी इनके आधारभूत शरीरका विनाश कभी भी नहीं चाहता, शरीरमें रोग आदि विनाशके कारण आनेपर उनका यथाशक्ति संमयानुसार प्रतीकार भी करता है, पर यदि निष्प्रतीकार अवस्था हो जाती है तो अपने संयम आदिका विनाश न हो उनकी रक्षा हो जाय इसके लिए पूरा : यत्न करता है । अतः व्रतादिकी रक्षा के लिए किये गये प्रयत्न आत्मवध कैसे कहा जा सकता है ? अथवा, जिस प्रकार तपस्वी ठंड गरमी के सुख-दुःखको नही चाहता, पर यदि बिनचाहे सुख-दुःख आ जाते हैं तो उनमें राग-द्वेष न होनेसे तत्कृत कर्मों का बन्धक नहीं होता उसी तरह जिनप्रणीत सल्लेखनाधारी व्रती जीवन और मरण दोनों के प्रति अनासक्त रहता है पर यदि मरणके कारण उपस्थित हो जाते हैं तो रागद्वेष आदि न होने से आत्मवधका दोषी नहीं है ।
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१०. जैसे क्षणिकवादीको 'सभी पदार्थ क्षणिक हैं' यह कहने में स्वसमयविरोध है। उसी तरह 'जब सत्त्व सत्त्वसंज्ञा वधक और वधचित्त इन चार चेतनाओंके रहनेपर हिंसा होती है' इस मतवादीके यहाँ जब सल्लेखनाकारीके 'आत्मवधक' चित्त ही नहीं है तब आत्मवधका दोष देने में स्ववचनविरोध है । इसका अर्थ यह हुआ कि बिना अभिप्रायके ही कर्मबन्ध हो 'कि स्पष्टतः सिद्धान्तविरुद्ध है । यदि सिद्धान्तविरोधके भय से चार प्रकारकी चेतनाओं के रहनेपर ही हिंसा स्वीकार की जाती है तो सल्लेखना में आत्मवधक चित्त न होनेसे हिंसा नहीं माननी चाहिए । अथवा, जैसे 'मैं मौनी हूँ' यह कहनेवाले मौनी के स्ववचनविरोध है उसी तरह निरात्मकवादीके जब आत्माका अभाव ही है तब 'आत्मवधकत्व' का दोप देने में भी स्ववचनविरोध ही है । यदि स्ववचनविरोधके भय से निरात्मक पक्ष लिया जाता है तो 'आत्मवध' की चर्चा अप्रासंगिक हो जाती है । जो वादी आत्माको निष्क्रिय मानते हैं यदि वे साधुजनसेवित सल्लेखनाको करनेवालेके लिए 'आत्मवध' दूषण देते हैं तो उनकी आत्माको निष्क्रिय माननेकी प्रतिज्ञा खंडित हो जाती है और यदि वे निष्क्रियत्व पक्षपर दृढ़ रहते हैं तो जब आत्मवधकी प्रयोजक सल्लेखना नामक क्रिया ही नहीं हो सकती, तब आत्मवधका दोष कैसे दिया जा सकता है ?
११. जिस समय व्यक्ति शरीरको जीर्ण करनेवाली जरासे क्षीणबलवीर्य हो जाता है। और वातादिविकारजन्य रोगोंसे तथा इन्द्रियबल आदिके नष्टप्राय होनेसे मृतप्राय हो जाता है, उस समय सावधान प्रती मरणके अनिवार्य कारणोंके उपस्थित होनेपर प्रासुक भोजन पान और उपवास आदि के द्वारा क्रमशः शरीरको कृश करता है और मरण होने तक अनुप्रक्षा आदि का चिन्तन करके उत्तम आराधक होता है ।
९१२ - १४. पूर्वसूत्र के साथ इस सूत्र को मिलाकर एकसूत्र इसलिए नहीं बनाया कि सल्लेखना कभी किसी सप्तशीलधारी व्रतीके द्वारा आवश्यकता पड़नेपर ही की जाती है, दिखत आदि की तरह वह सबके लिए अनिवार्य नहीं है । किसीके सल्लेखना के कारण नहीं भी आते ।