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७३६ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[७२२ कहा है । जैसे राजमहलके कुछ भण्डार बैठक आदिमें व्यापार करनेवाला चैत्र अन्तःपुर शयनागार आदिमें नहीं जाकर भी 'राजकुलमें सर्वगत' यह समझा जाता है उसी तरह हिंसादि बाह्य व्यापारोंसे विरक्त होनेके कारण आभ्यन्तर संयमघाती कर्मके उदय रहनेपर भी सामायिकव्रतीको महाव्रती कह देते हैं। इसीलिए निर्ग्रन्थलिंगधारी और एकादशांगपाठी अभव्यकी भी बाह्यमहाव्रत पालन करने के कारण देशसंयतभाव और संयतभावसे रहित होनेपर भी उपरिम |वेयकतक उत्पत्ति बन जाती है।
६२५. श्रावक शरीरसंस्कारके कारणभूत स्नान गन्ध माला अलंकार आदिसे रहित होकर साधुनिवास चैत्यालय या प्रोषधोपवासालय आदि पवित्र स्थानोंमें धर्मकथाश्रवण श्रावण चिन्तन और ध्यान आदिमें मनको लगाता हुआ आरम्भ परिग्रहको छोड़कर उपवास करे।
६२६. त्रसघात बहघात प्रमाद अनिष्ट और अनुपसेव्य रूप विषयोंके भेदसे भोगोपभोगपरिमाणवत पाँच प्रकारका हो जाता है। सघातकी निवृत्तिके लिए मधु और मांसको सदाके लिए छोड़ देना चाहिए। प्रमादके नाश करनेके लिए हिताहितविवेकको नष्ट करनेवाली मोहकारी मदिराका त्याग करना अत्यावश्यक है। केतकी अर्जुनपुष्प आदि बहुत जन्तुओंके उत्पत्तिस्थान हैं तथा मूली अदरख हलदी नीमके फूल आदि अनन्तकाय हैं, इनके सेवनमें अल्पफल और बहुविधात होता है, अतः इनका त्याग ही कल्याणकारी है। गाड़ी रथ घोड़ा तथा अलंकार आदि 'इतने मुझे इष्ट हैं, रखना हैं, अन्य अनिष्ट हैं' इस तरह अनिष्टसे निवृत्ति करनी चाहिये क्योंकि जबतक अभिप्रायपूर्वक नियम नहीं लिया जाता तबतक वह व्रत नहीं माना जा सकता। जो विचित्र प्रकारके वस्त्र विकृतवेष आभरण आदि शिष्टजनोंके उपसेव्य-धारण करने लायक नहीं हैं वे अपनेको अच्छे भी लगते हों तब भी उनका यावज्जीवन परित्याग कर देना चाहिये। यदि वैसी शक्ति नहीं है तो अमुक समयकी मर्यादासे अमुक वस्तुओंका परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिये।
२७. अतिथिसंविभागवत आहार,उपकरण औषध और आश्रयके भेदसे चार प्रकारका हो जाता है। मोक्षार्थी संयमी शुद्धमतिके लिए शुद्ध चित्तसे निर्दोष भिक्षा, सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रके बढ़ानेवाले धर्मोपकरण, योग्य औषध और आश्रय परमधर्म और श्रद्धापूर्वक देना चाहिये।
'च' शब्दसे गृहस्थधर्मों में संगृहीत होनेवाली सल्लेखनाका वर्णन..
मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥ मरणके समय होनेवाली सल्लेखनाको प्रम पूर्वक धारण करना चाहिये।
६१-५. अपने परिणामोंसे गृहीत आयु इन्द्रिय और बलका कारणवश क्षय होना मरण है। मरण दो प्रकारका है-नित्यमरण और तद्भवमरण । प्रतिक्षण आयु आदिका क्षय होनेसे नित्यमरण होता रहता है। नूतन शरीर पर्यायको धारण करनेके लिए पूर्वपर्यायका नष्ट होना तद्भव मरण है। सूत्रमें मरणान्त शब्दसे तद्भवमरण लिया गया है। सल्लेखना अर्थात भली प्रकार काय और कषायोंको कृश करना। बाह्यशरीर और आभ्यन्तर कषायोंका कारणनिवृत्तिपूर्वक क्रमशः क्षीण करते जाना सल्लेखना है। इसको सेवन करनेवाला 'गृही' होता है। यहाँ 'गृही शब्दका अध्याहार कर लेना चाहिए। यद्यपि 'सेविता' शब्द देनेसे काम निकल सकता था, फिर भी 'जोषिता' पदसे 'प्रीतिपूर्वक सेवन करना' यह विशिष्ट अर्थ विवक्षित है । स्वयं की अन्तरंग प्रीतिके बिना जबरदस्ती सल्लेखना नहीं कराई जाती। अन्तरंग प्रीतिके होनेपर सल्लेखना की जाती है। यहाँ 'जोषिता' शब्दमें कर्ता अर्थामें 'तृन्' प्रत्यय है, अतः 'सल्लेखनायाः' ऐसा षष्ठीका प्रसंग नहीं है।
६६-९. प्रश्न-सल्लेखनामें अभिप्रायपूर्वक आयु और शरीर आदिका घात किया