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७३८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[७१२३-२६ गृहस्थको दिग्वत आदि सात शीलोंका उपदेश दिया गया है । उसे घर छोड़ देनेपर श्रावकरूपसे ही सल्लेखना होती है इस विशेष अर्थको सूचना देनेके लिए पृथक सूत्र बनाया है। 'यह सल्लेखना विधि सातशीलधारी गृहस्थको ही नहीं है किन्तु महाव्रती साधुको भी होती है। इस सामान्य नियमकी सूचना भी पृथक् सूत्र बनानेसे मिल जाती है।
सम्यग्दर्शनके अतिचारशङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥२३॥
२. शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं। निःशंकित्व आदिके प्रतिपक्षी शंका आदि हैं। मिथ्यादृष्टियोंके ज्ञान चारित्र गुणोंका मनसे अभिनन्दन करना प्रशंसा है तः था वचनसे विद्यमान-अविद्यमान गुणोंका कथन संस्तव है।
२. यद्यपि अगारीका प्रकरण है और आगे भी रहेगा, पर इस सूत्रमें अगारी-गृहस्थ सम्यग्दृष्टिके अतिचार नहीं बताये हैं किन्तु सम्यग्दृष्टिसामान्यके, चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि ।
६३-४. दर्शनमोहके उदयसे तत्त्वार्थश्रद्धानसे विचलित होना अतीचार है । अतिक्रम भी अतिचारका ही नाम है । यद्यपि सम्यग्दर्शनके अंग आठ बताये हैं और उनके प्रतिपक्षी दोष आठ हो सकते हैं, पर शेषका यहीं अन्तर्भाव करके पाँच ही अतिचार बताये गये हैं, यहाँ संस्तवको पृथक् गिना है।
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥२४॥ व्रत और शीलोंके भी क्रमशः पाँच पाँच अतिचार हैं।
११-२. यद्यपि दिग्विरति आदि शील भी अभिसन्धिपूर्वकनिवृत्ति होनेसे व्रत हैं किन्तु ये शील विशेषरूपसे व्रतोंके परिरक्षणके लिए होते हैं अतः इनका पृथक निर्देश किया है। आगे बन्ध वध आदि अतिचार बताये जायँगे, उससे ज्ञात होता है कि ये अतिचार गृहस्थोंके व्रतके हैं।
३-४. 'पञ्च-पञ्च' यह वीप्सार्थक द्वित्व है । तात्पर्य यह कि इसमें समस्त अर्थका बोध होता है, प्रत्येक व्रत-शीलके पाँच-पाँच अतिचार हैं यह सूचित होता है । यद्यपि 'पञ्चशः' ऐसा शस् प्रत्ययान्तपदसे काम चल सकता था पर स्पष्ट बोधके लिए द्वित्वनिर्देश किया है। यथाक्रम शब्दसे आगे कहे जानेवाले अतिचारोंका निर्दिष्टक्रमसे अन्वय कर लेना चाहिए।
अहिंसाणुव्रतके अतिचार
- बन्धवधच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ॥ २५ ॥
१-५. बन्ध-खूटा आदिसे रस्सीसे इस प्रकार बाँध देना जिससे वह इष्टदेशको गमन न कर सके। डंडा कषा बेंत आदिसे पीटना वध है, न कि प्राणिहत्या ; क्योंकि हत्यासे विरति तो व्रतधारणकालमें हो चुकी है । कान नाक आदि अवयवोंका छेदन करना छेद है । अत्यन्त लोभके कारण उचित भारसे अधिक भार लादना अतिभारारोपण है। गाय बैल आदिको किसी कारणसे समय पर चारा-पानी नहीं देना अन्नपाननिरोध है । ये अहिंसाणुव्रतके अतिचार हैं। मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥२६॥
१-५. अभ्युदय और निःश्रेयसार्थक क्रियाओंमें उलटी प्रवृत्ति करा देना या अन्यथा बात कहना मिथ्योपदेश है। स्त्री-पुरुषके एकान्तमें किये गये रहस्यका उद्घाटन रहोभ्याख्यान है। किसीके कहनेसे ठगनेके लिए झूठी बात लिखना कूटलेखक्रिया है। सुवर्ण आदि गहना रखने वालेके द्वारा भूलसे कम माँगनेपर जानते हुए भी 'जो तुम माँगते हो ले जाओ' इस तरह कम