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322/श्री दान-प्रदीप
व्यसन से समस्त धन ही नहीं गँवाया, बल्कि धर्म, सुख, गुण, प्रसिद्धि और अन्त में अपना नाम भी मूल से गँवा दिया। द्यूत खेलते हुए उसे इतना दारिद्र्य प्राप्त हुआ, उसके घर पर भोजन का भी संदेह रहने लगा कि आज घर पर भोजन है भी या नहीं?
एक बार उसके घर पर अनाज न होने से उसकी माता ने भोजन नहीं बनाया, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं निपजता। उस समय जीर्ण ध्वज के वस्त्र को धारण करनेवाला, घिसे हुए नाखूनोंवाला, भुरभुरे हाथोंवाला और मानो साक्षात् कुल का कलंक ही हो-ऐसा वह भोजन करने के लिए घर पर आया। वहां उसको और चूल्हे में आलोटते हुए चूहों को देखकर खेद से पराधीन माता ने गद्गद स्वर में पुत्र से कहा-“हे पुत्र! तूंने कुल रूपी वन में यह कौनसा द्यूत रूपी दावानल फूंका है? कि जिससे धर्म, अर्थ और काम रूपी वृक्षों को मूल से ही जला दिया है। तेरे पिता दूसरे मनुष्यों का पेट भरते थे और तूं स्वयं का पेट भरने में भी समर्थ नहीं है। तुम्हारे पिता ग्राम के सभी अधिकारियों में मुख्य थे और तूं पास में खड़ा हो, तो भी कोई तेरी तरफ दृष्टि तक नहीं डालता। अन्य पुत्र अपने पिता की कीर्ति और धन की वृद्धि करते हैं, पर तूंने इन दोनों का ही नाश कर डाला है। अहो! तेरी सुपात्रता कैसी है? अन्य पुत्र अपनी माता को स्वर्णादि आभूषणों के द्वारा शोभित करते हैं, पर तूं तो इसके विपरीत द्यूत के व्यसन के कारण अपनी माता के सारे अलंकार हार गया है। सूर्यसमान पिता का पुत्र होते हुए भी तुमने शनि के समान समग्र ज्ञातिजनों के चित्त को संतप्त किया है। हमेशा द्यूत में धन हारने के बावजूद भी आज तक तेरे पिता के द्वारा उपार्जित धन से ही आजीविका का निर्वाह हुआ है। पर तूं तो एक फूटी कौड़ी तक लेकर नहीं आया। अतः हे कुपुत्र! हे निर्लज्ज! तेरा चित्त दिन-रात जुगार में ही लगा हुआ है, तो वहीं भोजन करने क्यों नहीं जाता?"
इस प्रकार उसकी माता ने उसका तिरस्कार किया। तब उसने लज्जा से अपना मस्तक झुका लिया। वह मन में अत्यन्त खिन्न बना। हिम के द्वारा मुरझाये हुए कमल की तरह वह ग्लानि को प्राप्त हुआ। उसके बाद उसी वक्त खेदयुक्त होकर ध्वजभुजंग अपने घर का त्याग करके फलादि का आहार करते हुए उज्जयिनी नगरी में आया। वहां भी दो-तीन दिन बाद पहले की तरह द्यूत खेलने लगा। प्राणी तृण की तरह कर्म रूपी वायु का ही अनुसरण करते हैं। वह जुआ तो खेलता था, पर उसकी संगति रूपी चोरी, क्रूरता व असत्य आदि दोष उसमें नहीं थे। यह भी कर्म की ही विचित्रता थी।
एक दिन वह जुगार में अगणित द्रव्य हार गया, क्योंकि जुए में धन हारना तो सरल ही है, पर जीतना अत्यन्त दुर्लभ है। अतः देनदार होने से अन्य लेनदार जुआरी उसके पास धन मांगने लगे। पर वह सर्वथा निर्धन होने से धन देने में समर्थ नहीं हुआ। अतः मानो अशुभ कर्मों से भाग रहा हो-इस प्रकार वह जुआरियों से भयभीत होकर भागकर किसी सरोवर की पाल