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321/श्री दान-प्रदीप
खत्म हो गया।
एक बार राजपाल भोजन करने के लिए घर आया, तब उसकी माता ने कहा-“हे वत्स! पकाने के लिए ईंधन नहीं है। अतः भोजन करके ईंधन लेकर आ।"
उसके बाद वह भोजन करके हाथ में कुल्हाड़ी लेकर वन में गया। वहां एक विशाल वृक्ष देखकर उसे काटने के लिए तैयार हुआ, तभी वृक्ष का अधिष्ठायक देव आकाश में प्रकट होकर बोला-“हे महाशय! यह वृक्ष मेरे रहहने का स्थान है। इसे तूं मत काट ।"
इस प्रकार कान को अमृत समान लगनेवाली मीठी वाणी सुनकर राजपाल ने मुख ऊँचा किया और जैसे श्रद्धालू पापकर्मों से पीछे लौटता है, उसी प्रकार वह वृक्ष छेदने से रुक गया। यह देखकर यक्ष ने प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष होते हुए कहा-“हे सत्पुरुष! मैं तुझ पर प्रसन्न हुआ हूं। तूं इच्छानुसार वरदान मांग।"
यह सुनकर राजपाल 'अहो! मेरा भाग्य! अहो! मेरा पुण्य!'-इस प्रकार विचार करते हुए आश्चर्यचकित होकर देव को वंदन करके बोला-"हे देव! इस पृथ्वी पर विशाल राज्य भोग और सुख आदि सुलभ हैं, पर एकमात्र देवदर्शन ही दुर्लभ है। देवदर्शन की आशा से मनुष्य सैकड़ों तप तपता है, विधि-प्रमाण मंत्रादि का जाप जपता है, समृद्धि का व्यय करता है, श्मशान में कष्टपूर्वक रात्रि व्यतीत करता है और अग्नि में होमादि करने का कष्ट सहन करता है। ऐसे देव का दर्शन मुझे प्रयत्न के बिना ही पुण्य से प्राप्त हुआ है। अतः हे देव! आपके दुर्लभ दर्शन पाकर आज मैं कृतार्थ बना हूं। अतः और क्या मांगू?"
देव ने कहा-“हे भद्र! देव के दर्शन निष्फल नहीं जाते-ऐसा कहा जाता है। अतः तुम शीघ्र ही कोई भी वरदान मांग लो।"
यह सुनकर राजपाल ने विचार किया-"अगर धन मांगूंगा, तो वह मेरे व्यसन के कारण टिकेगा नहीं, अतः अभी तो मैं इस वरदान को स्थापन के रूप में मांग लूं।"
ऐसा विचार करके राजपाल ने कहा-“हे देव! जब मैं आपका स्मरण करूं, तब आप मुझे दर्शन देना।"
"ठीक है"-ऐसा कहकर देव मानो स्वप्न में दिखा हो इस प्रकार से तत्काल अदृश्य हो गया। राजपाल भी अन्य काष्ठ लेकर घर पर आ गया। उसी प्रकार द्यूत खलते हुए एक बार उसने अपने पहने हुए वस्त्र शर्त में रख दिये और वह शर्त हार गया। व्यसन से किसकी बुद्धि नाश को प्राप्त नहीं होती? उसके बाद अन्य वस्त्र नहीं होने से उसने देवमन्दिर के ऊपर से उतरा हुआ जीर्ण ध्वज-वस्त्र लेकर निरन्तर वही पहना। इससे लोग उसे ध्वजभुजंग के नाम से पुकारने लगे, क्योंकि मनुष्य का नाम उसके व्यापार से प्रसिद्ध होता है। उसने जुगार के