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________________ छठा गुणस्थान. (५७) सार, खाँसी, श्वास, ज्वर वगैरह रोग उत्पन्न हो जाते हैं । उन रोगोंको भोगते समय जो मनमें आकुल व्याकुलता होती है, उस आकुल व्याकुलतासे हृदयमें अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प होते हैं, अर्थात् रोगोंको दूर करनेके लिये एकेन्द्रिय जीवसे लेकर पंचेन्द्रिय जीवोंको तथा अनन्तकाय आदिके आरंभ समारंभ, छेदन, भेदन, पचन पाचनादिकी क्रियासे मनमें मारनेका विचार होता है। अपने शरीरको अच्छा रखनेके लिये दूसरे जीवके प्राणोंका अपहार करनेका विचार आते हुए मनमें कुछ देर नहीं लगती। रोग पीड़ित हृदयमें प्रायः दयाभाव बहुत कम रहता है । अतः रोगी अवस्थामें मनुष्यके हृदयमें जो संकल्प विकल्परूप विचारोंकी परंपरा प्राप्त होती है, उसे ही तत्त्वज्ञानि पुरुषोंने आर्तध्यानका रोगोदय नामक तीसरा भेद फरमाया है। ___आर्त ध्यानका चौथा भेद भोगेच्छा नामक है। पाँचों इन्द्रियों संबन्धि भोगोंकी अभिलाषाको भोगेच्छा कहते हैं। श्रवणन्द्रिय (कान) से मधुर राग रागणी, देवांगनाओंके मधुर गायन तथा बाजोंके कोमल मनोज्ञ राग सुननेमें अभिलाष । चक्षुरिन्द्रिय (आंख) से नाच-तमासे सोलह शृंगार सजीधजी हुई युवती स्त्री तथा पुरुषों, बाग-बगीचे-नाटक, मंडपोंकी शोभा, रोशनी तथा अनेक प्रकारके रूप रंग देखनेकी इच्छा, घ्राणेन्द्रिय (नाक) से अतर फुलेल पुष्पादि सुरभित पदार्थोकी इच्छा, रसेन्द्रिय (जीभ ) से अच्छे अच्छे मधुर और स्वादीष्ट भोजन खानेका अभिलाष, और स्पर्शेन्द्रिय (शरीर) से सुकोमल शय्या, आसन वस्त्राभरण तथा सुरूपा स्त्री वगैरहके विलास भोगनेकी इच्छा करे । पूर्वोक्त पाँचों इन्द्रियोंके विषय प्राप्त होनेपर मनमें यह विचार करे कि मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ जो मुझे मनोवांछित पदा.
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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