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________________ (५६) गुणस्थानक्रमारोह. हो कर जमीन पर शोकातुर हो पड़ जाय, छाती मस्तक पीटने लगे, मरनेको तयार हो जाय, किसी भी प्रकारका शंकट पड़नेपर खराब विचार करे कि हाय रे अब मैं क्या करूँगा ? मेरी क्या दशा होगी ? अब मैं इस कष्टसे कैसे उत्तीर्ण होऊंगा, हा ! वह मेरी परमेश्वरी कहाँ चली गई ? इत्यादि विचारोंकी अन्तःकरणमें प्राप्ति होनी तथा विषयसुख भोगनेके लिए अनेक प्रकारके राग रंग, बाग बगीचे, अतर फुलेल, षड्रस युक्त भोजन, उत्तम वस्त्राभरण, सुखस्पर्श दायक शय्या, आसन वगैरह विनश्वर पदार्थोंको प्राप्त करनेके लिए अनेक पापारंभ गर्भित विचार मनमें करे, इन सबको इष्टवियोग नामक आर्त ध्यान कहते हैं । ____ आर्त ध्यानका तीसरा भेद रोगोदय आर्त है । संसारवासि तमाम जीव आरोग्यताको इच्छते हैं, परन्तु अशुभ कर्मका उदय होनेसे जीवोंके शरीरमें जो जो रोग तथा अशान्ति पैदा होती है, उसे सहन शीलतासे या असहन शीलतासे भोगे विना छुटकारा तो कदापि नहीं हो सकता, उत्तराध्ययन सूत्रके चतुर्थ अध्ययनमें शास्त्रकार फरमाते हैं कि, "कड्डाण कम्माण अणभोग न अत्थि मोरुखो" अर्थात् किये हुए कर्मको भोगे विना मोक्ष नहीं होता। इसी तरह और भी कहा है-कृतकर्मक्षयोनास्ति, कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोगतव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥१॥ मनुष्यके शरीरमें साढ़े तीन करोड़ रोम राई कही जाती हैं, जिसमें एक एक रोमके अन्दर पौने दो दो रोगे भर हुवे हैं। बस इसीसे अपने विचार सकते हैं कि यह विनश्वर शरीर कितने रोगोंका घर है। जब तक जीवके सातावेदनीय कर्मका उदय रहता है, तब तक शरीरगत सब ही रोग दबे रहते हैं। जब जीवके अशुभ कर्मका उदय होता है, तब एकाएक शरीरमें अनेक प्रकारक भगंदर, जलंधर, अति
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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